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२१. पार्श्वनाथकाव्य : पद्मसुन्दर
आलोच्य काल के पौराणिक महाकाव्यों में, मुगल सम्राट अकबर के धर्ममित्र उपाध्याय (द्मसुन्दर के पार्श्वनाथकाव्य का महत्त्व काव्य-गुणों के कारण इतना नहीं है, जितना कवि के व्यक्तित्व के कारण । पार्श्वनाथकाव्य में तीर्थंकर पार्श्वनाथ का पुराण-प्रसिद्ध चरित, लगभग उसी परिवेश तथा शैली में, वर्णित है। चरित-वर्णन तो यहाँ निमित्त मात्र है। पार्श्वचरित का आँचल पकड़ कर कवि ने वस्तुतः जैन-धर्म तथा दर्शन के सिद्वान्तों की व्याख्या की है। वैसे भी काव्य में जन्म-जन्मान्तरों के वृत्तों तथा विषयान्तरों का इतना बाहुल्य है कि चरित का सूत्र कहीं-कहीं दिखाई देता है। इतना होने पर भी हेमविजय के पार्श्वचरित की तुलना में, जिसकी समीक्षा इसी अध्याय में की जा पेगी, इसकी विषय-समृद्धि तथा विविधता अल्प है, यद्यपि कवि का प्रचारात्मक दृष्टिकोण उतना ही प्रबल है।
विवेच्य युग के अन्य कुछ काव्यों के समान पार्श्वनाथकाव्य अभी तक अप्रकाशित है । इ की एक अतीव शुद्ध तथा सुपाठ्य प्रति (संख्या १६) जयपुर के प्रसिद्ध आमेर-शास्त्र-भण्डार में उपलब्ध है । दुर्भाग्यवश इसकी प्रान्तप्रशस्ति का एक भाग नष्ट हो गया है, जिसके फलस्वरूप काष्ठासंघ के भट्टारक कुमारसेनदेव के आम्नायी चौधरी छाज की वंशावली अधूरी रह गयी है । 'जैन साहित्य और इतिहास' में किसी अन्य प्रति से उद्धृत लेखक-प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि वे रायमल्ल के पूर्वज थे, जिसकी अभ्यर्थना तथा प्रेरणा से कवि ने प्रस्तुन काव्य तथा रायमल्लाभ्युदय' की रचना की थी। पार्श्वनाथकाव्य के प्रणयन में रायमल्ल का योग ऐसा प्रबल है कि पद्मसुन्दर ने न केवल काव्य के प्रारम्भिक पद्य में, अपितु प्रत्येक सर्ग के
१. नाथुराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास, बम्बई, १९५६, पृ. ३६७-६८ तथा
पृ. ४०२-४०३ पर उद्धृत पार्श्वनाथकाव्य के लेखक की गद्यात्मक प्रशस्ति । २. इसका परिचय प्रो. पीटर्सन ने जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, बाम्बे ब्रांच (अतिरिक्त अंक, सन् १८८७) में विस्तार से दिया है । देखिये 'जैन
साहित्य और इतिहास' पृ. ३६७, पा. टि. १. ३. शुश्रूषुस्तदकारयत्सुकवितः श्रीपार्श्वनाथाह्वयम् ।
काव्यं नयमिद श्रुतिप्रमददं श्रीरायमल्लाह्वयः ॥ पार्श्वनाथकाव्य, १.३.