Book Title: Jain Sahitya Samaroha Guchha 2
Author(s): Ramanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 444
________________ भक्तामर स्तोत्र में भक्ति एव साहित्य 57 "जिणवर चरणांबुरुह, जयति जे परम भक्तिराएण, ते जम्मवेलि मूल, खणन्ति वरभाव सत्येण ।। अर्थात् जो जन परमभक्ति रूपी अनुरागार्वक जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलों में नत रहते हैं वे जन्म-मरण रूपी सांसारवेलि का उक्त उत्कृष्ट भक्तिभावरूप शस्त्र द्वारा समूल उच्छेद कर देते हैं - सिद्धत्व या मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । नियमानुसार में व्यवहारभक्ति के संदर्भ में कहा है कि जो जीव मोक्षगत पुरुषा का गुणभेद जानकर उनकी भी परम भक्ति करता है उस जीव की व्यवहार से भक्ति होती है-'मोक्खंगय पुरिसाण गुणभेद जाणिऊण तेसिपि । जो कृणदि परमभक्ति ववहारणयेन परिकहिय ।"1 ‘सर्वार्थसिद्धि' में-"भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागी भक्ति ।"2 कह कर भावों की विशुद्धि के साथ अनुराग रखना भक्ति है-माना है । भावपाहुड में आचार्य कहते हैं- जो नित्य है, निरजन है, शुद्ध है तथा तीन लोक के द्वारा पूजनीक है- ऐसे सिद्धभगवान ने ज्ञानदर्शन और चरित्र में श्रेष्ठ में उत्तम भाव की शुद्धता दी ।"3 भक्तिविभोर भक्त व्यवहाररूप से अहंत में कर्तापने का भाव आरोपित कर मुक्ति की याचना में लीन हो जाता है। पद्मनंदि पंचविंशतिका में आचार्य लिखते हैं-"तीनों लोकों के गुरु और उत्कृष्ट सुख के अद्वितीय कारण ऐसे हे जिनेश्वर ! इस मुश दास के उपर ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे मुझे मुक्ति प्राप्त हो जाये । हे देव ! आप कृपा करके मेरे जन्म को नष्ट कीजिये यही एक बात मुझे आपसे कहनी है। वचनों से कीर्तन किये गये, मन से वन्दना किये 1. दे नियमसार, पृ. १३५, 'जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, पृ. २०८ 2. दे स. सिद्धि, ६/२४/३३९, 'जैनेन्द्र सिद्धांत कोश', पृ. २०८ 3. दे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश', पृ. २०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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