Book Title: Jain Ras Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandra Maharaj
Publisher: Gokaldas Mangaldas Shah
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पहुतां भव पारूरे ॥वंदो०॥ २१९ ॥ काय कलेश, ते अनेक प्रकारे, काउसग्ग कर रहेतारे । औकडू आसण रात दिवस पण, प्रतिमा बार ते वहतारे ॥ वंदो० ॥ २२० ॥ सिंहासण ऊपर बेसीने, भूमि ऊपर पग ठावेरे । पछे सिंहासण परहु करावे, आपण तेम रहावेंरे ॥ वंदो० ॥२२१ ॥ पाट पीढ भुई ऊपर पहेलं, हुए ते ऊपर बेसेरे । तेय निसेजाऽऽसनिक कहीजे, विण आसण नहु बेसेरे ॥ वंदो०॥ २२२ ।। दंडायतक दंड जिम लांबा, सुए अभिग्रहकारीरे। ऊत्या काष्ट जेम पानहि शिर, भूमि अवर अंग वारीरे ॥ वंदो० ॥ २२३ ॥ आतपन उष्ण अने शीतल, मूतां बेठा ऊभारे। त्रिविध उक्कोस मध्यम जघन्यत, नव विध जघन्य ते उभारे ॥वंदो०॥ २२४ ॥ मूतां अधोमुखी उत्कृष्टी, एक पासु आडे मध्यमरे । उत्तान शायि जघन्न इम बेठा, गोदोहि ओकूडू मध्यमरे ॥ वंदो० ॥ २२५ ।। पर्यकासन जघन्य कहीजें, ऊभां करि जिम सुंडारे । एक पग ऊभां बेहुं पगऊभां, गुरुआ ल्ये गुण उडारे ।। वंदो० ॥ २२६ ॥ अवाओड चीवर विण अहनिश रहे, अंगे खर जिम खणियेरे । थूक न नाखे नख रोमादिक, सोभा वर्जक भणीयेरे ॥ वंदो० ॥ २२७ ॥ सर्व विभूषा तननी दाले, काय कलेस ते भाखेरे। इंद्रिय कसाय जोग विवित्तासण, सेवणा भेद चउ दाखेरे ॥ वंदो० ॥ २२८ ॥ संलीनता एम चिहुं प्रकारें, प्रथम इंद्रियनी जोवोरे । स्रोत्र इंद्रियनो विष रुंधवो, राग दोष विण होवोरे ॥वंदो०॥२२९॥

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