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१:७ : २११-२१४] श्रीवरकृता
२३३ ग्रीष्मोष्मशोपिततनुविरसश्चिरं य
श्छायोज्झितो मरुतरुः पथिकैर्निरस्तः । वर्षाप्तसेकमहिमा जनतापशान्त्यै
सेव्यः स एव बत पत्रविचित्रशोभः ।। २११ ॥ २११. ग्रीष्म की उष्मा से शोषित शरीर तथा विरस चिरकाल तक छाया रहित पथिकों द्वारा परित्यक्त मरुतर वर्षाकाल में सेक से पूनः महिमा ( महत्व) प्राप्त कर, पत्रों से विचित्र शोभायुक्त हो जाता है, और आश्चर्य है, वही लोगों के लिये ताप शान्ति हेतु सेव्य हो जाता है ।
सदशैवावहन्मध्ये या द्वयोस्तटयोरिव ।
एकपाश्वगता सर्वा तदाभूद्राज्यनिम्नगा ॥ २१२ ।। २१२. तट सदृश दोनों के मध्य, जो समान रूप से बह रही थी, वह सम्पूर्ण राज्य नदी, उस समय एक का आश्रय ले ली ( एक के पास चली गयी ) ।
इत्थं भ्रातृद्वयस्थित्या विजयावजयक्रमः ।
अन्यथा कल्पितः सर्वैरन्यथाभूद्विधेवेशात् ।। २१३ ॥ २१३. इस प्रकार दोनों भाइयों की स्थिति से सब लोगों द्वारा अन्यथा कल्पित जय-पराजय का क्रम विधिवश ( कुछ ) अन्यथा (ही) हो गया।
पुत्रः स्यान्नु कदेति शोचति पिता जातेतिहर्षाकुल
स्तवृद्धथै यततेऽन्वहं विधिशतैश्चिन्तास्तदीया वहन् । वृद्धो विघ्नमिव स्वकं स जनकं जानाति लोभान्वित
स्तद्वित्ताप्तिधिया मरिष्यतिकदेत्यन्तः सदा चिन्तयन् ॥ २१४ ॥ २१४. पिता सोचता है, पुत्र कब होगा? और उत्पन्न होने पर, हर्षित होता है, पुत्र की चिन्ता करते हुये, सैकड़ों उपायों से उसकी वृद्धि के लिये प्रतिदिन प्रयत्न करता है । प्रवृद्ध होकर, लोभान्वित वह, अपने पिता को विघ्न सदृश जानता है तथा पिता की धनप्राप्ति की बुद्धि से 'कब मरेगा' यह अन्तश्चिन्तन करता है।
अस्मिन्नवसरे राजा कियद्भिः सेवकैर्वृतः ।
श्रुतमश्रु तवत् कर्तुं स निश्चिन्त इवाभवत् ।। २१५ ।। २१५. इस अवसर पर कुछ सेवको सहित वह राजा सुने को अनसुना सदृश करने के लिये निश्चिन्त-सा हो गया।
पाद-टिप्पणी : २११. 'पत्र' पाठ-बम्बई।
जै. रा. ३०
पाद-टिप्पणी :
२१४. 'स्थान्नु' पाठ-बम्बई।