Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 330
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश ३१३ रणपिंडवायलाभे समितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा। (प्रश्न ८.१२) साधारणभक्तपानअनुज्ञातपरिभोजन अचौर्य महाव्रत की एक भावना। साधारण भक्तपान का आचार्य आदि को अनुज्ञापित कर परिभोग करना। साधारणं-सामान्यं यद्भक्तादि तदनुज्ञाप्याचार्यादिकं तस्य परिभोजनम्। (सम २५.१.१५ वृ प ४३) साधारण शरीर वह शरीर, जिसका निर्माण अनन्त जीव समुदित होकर करते हैं। अणंता वणस्सइकाइया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति। (भग १९.२३) (द्र अनन्तजीव) साधन जिसका साध्य के साथ अविनाभावी संबंध रहता है, जो नियमत: साध्य के अभाव में उत्पन्न नहीं होता। निश्चितसाध्याविनाभावि साधनम्। (भिक्षु ३.१०) साधर्मिक समान आचार और समान सामाचारी वाला मुनि। 'साहम्मिय' त्ति समानो धर्मः सधर्मस्तेन चरन्तीति साधमिकाः-साधवः। (स्था १०.१७ वृ प ४४९) साधर्मिकअवग्रहअनुज्ञात परिभोजन अचौर्य महाव्रत की एक भावना। साधर्मिकों द्वारा याचित अवग्रह (स्थान) का उनकी अनुज्ञा लेकर उपयोग करना। साधर्मिकाणां-गीतार्थसमुदायविहारिणां संविग्नानामवग्रहो मासादिकालमानत: पञ्चक्रोशादिक्षेत्ररूप: साधर्मिकावग्रहस्तं तानेवाऽनुज्ञाप्य तस्य परिभोजनता -अवस्थानं साधर्मिकाणां क्षेत्रे वसतौ वा तैरनुज्ञाते एव वस्तव्यम्। (सम २५.१.१४ वृ प ४३) साधर्म्य दृष्टांत जहां साधन धर्म के विद्यमान होने पर साध्य धर्म की विद्यमानता निश्चित रूप से प्रदर्शित हो, जैसे-जहां-जहां धुआं है, वहां-वहां अग्नि है, जैसे-रसोईघर। यत्र साधनधर्मसत्तायामवश्यं साध्यधर्मसत्ता प्रकाश्यते, स साधर्म्यदृष्टान्तः। यथा-यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निर्यथा महानसे। (प्रनत ३.४५,४६) साधारण जीव एक ही शरीर में विद्यमान अनन्त जीव, निगोद जीव, जिनकी उत्पत्ति, शरीर-निष्पत्ति, आनापान, उच्छ्वास-निःश्वास, आहार-ये सब क्रियाएं एक साथ होती हैं। साहारणमाहारो, साहारणमाणुपाणगहणं च। साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं एयं॥ (प्रज्ञा १.४८.५५) (द्र अनन्तजीव) साधारणपिण्डपातलाभसमितियोग अचौर्य महाव्रत की एक भावना । सामुदानिक भिक्षा मिलने पर मुनि का विधिपूर्वक भोजन करना। साहारणपिंडपातलाभे भोत्तव्वं संजएण समियं"एवं साहा साधारणशरीरनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से अनन्त जीवों को एक शरीर मिलता है। यदुदयवशात् पुनरनन्तानां जीवानामेकं शरीरं भवति तत्साधारणनाम। (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) यतो बह्वात्मसाधारणोपभोगशरीरं तत्साधारणशरीरनाम। (तवा ८.११) साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिक वह बादरवनस्पतिकाय, जिसके एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं। समानं-तुल्यं प्राणापानाद्युपभोगं यथा भवति एवमासमन्तादेकीभावेनानन्तानां जन्तूनां धारणं-संग्रहणं येन तत्साधारणं, साधारणं शरीरं येषां ते साधारणशरीराः, ते च ते बादरवनस्पतिकायिकाश्च साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिकाः। (प्रज्ञा १.३२ वृ प ३०) साधु १. सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र के योग से अपवर्गमोक्ष की साधना करने वाला। साधयन्ति सम्यग्दर्शनादियोगैरपवर्गमिति साधवः। (द १.५ हावृ प ७९) २. जो छह जीवनिकाय का अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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