Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 19
________________ सम्पादकीय लगभग ५ वर्ष पूर्व मैंने पं. दरबारीलाल जी कोठिया न्यायाचार्य, एम्. ए., पी.एच. डी. वाराणसी की प्रेरणा से यहाँ पाकर प्रस्तुत लक्षणावली के सम्पादन कार्य को हाथ में लिया था। इसकी योजना स्व. श्रद्धेय पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा तैयार की गई थी। उन्होंने इस कार्य को सम्पन्न कराने के लिए कुछ विद्वानों को नियुक्त कर उनके द्वारा दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के बहत से ग्रन्थों से लक्षणों का संकलन भी कराया था। यह संकलन तब से यों ही पड़ा रहा । जो कुछ भी कठिनाइयाँ रही हों, उसे मुद्रण के योग्य व्यवस्थित कराकर प्रकाश में नहीं लाया जा सका। अब जब मैंने उसे व्यवस्थित करने के कार्य को प्रारम्भ किया तो इसमें मुझे कुछ कठिनाइयों का अनुभव हुआ। जैसे १ उक्त संकलित लक्षणों में से यदि कितने ही लक्षणों में सम्बद्ध ग्रन्थों के नाम का ही निर्देश नहीं किया गया था तो अनेक लक्षणों में केवल ग्रन्थ के नाम मात्र का निर्देश किया गया था-उसके अन्तर्गत अधिकार, सूत्र, गाथा, श्लोक अथवा पृष्ठ आदि का कुछ भी निर्देश नहीं किया गया था। उनके खोजने में काफी कठिनाई हुई। २ कुछ लक्षणों को ग्रन्थानुसार न देकर उन्हें तोड़-मरोड़कर कल्पितरूप में दिया गया था । उदाहरणार्थ धवला (पु. ११, पृ. ८६) में से संगृहीत 'अकर्मभूमिक' का लक्षण इस प्रकार दिया गया था-पण्णारसकम्मभूमीसु उप्पण्णा कम्मभूमा, ण कम्मभूमा अकम्मभूमा, भोगभूमीसु उप्पण्णा प्रकम्मभूमा इत्यर्थः । परन्तु उक्त धवला में न तो इस प्रकार के समास का निर्देश किया गया है और न वहां धवलाकार का वैसा अभिप्राय भी रहा है। उन्होंने तो वहां इतना मात्र कहा है-तत्थ अकम्मभूमा उक्कस्सदिदि ण बंधति, पण्णारसकम्मभूमीसु उप्पण्णा चेव उक्कस्सट्ठिदि बंध ति त्ति जाणावण8 कम्मभूमियस्स वा त्ति भणिदं'। इस प्रकार के अप्रामाणिक लक्षणों का संकलन करना उचित प्रतीत नहीं हमा। यदि ग्रन्थकार का कहीं उस प्रकार के लक्षण का अभिप्राय रहा है तो ग्रन्थगत मूल वाक्य को-चाहे वह हेतुपरक रहा हो या अन्य किसी भी प्रकार का-उसी रूप में लेकर आगे कोष्ठक में फलित लक्षण का निर्देश कर देना मैंने उचित समझा है । ३ कितने ही लक्षणों के मध्य में अनुपयोगी अंश को छोड़कर यदि आगे कुछ और भी लक्षणोपयोगी अंश दिखा है तो उसे ग्रहण तो कर लिया गया था, पर वहाँ बीच में छोड़े गये अंश की प्रायः सुचना नहीं की गई थी। ऐसे लक्षणों में कहीं-कहीं ग्रन्थकार के प्राशय के समझने में भी कर है। अतएव मैंने बीच में छोड़े हुए ऐसे अंश की सूचनाXXXइस चिह्न के द्वारा कर दी है ४ संगृहीत लक्षणों का जो हिन्दी अनुवाद किया गया था वह प्राय: भावात्मक ही सर्वत्र रहा है-जिन ग्रन्थों से विवक्षित लक्षण का संकलन किया गया है, उनमें से किसी के साथ भी प्रायः उसका मेल नहीं खाता था। यहां तक कि जो लक्षण केवल एक ही ग्रन्थ से लिया गया है उसका भी अनुवाद तदनुरूप नहीं रहा । जैसे 'अघ्वयु' के लक्षण का अनुवाद इस प्रकार रहा है शिवसुखदायक पूजा-यज्ञ-के करनेवाले व्यक्ति को अध्वयु कहते है। इसके अतिरिक्त श्वे. ग्रन्थों में उपलब्ध अधिकांश लक्षणों का अनुवाद तो प्रायः कल्पना के आधार पर किया गया था, ग्रन्थगत अभिप्राय से वह बहिर्भूत ही रहा है। १. धवलाकार को 'अकर्मभूमिक' से क्या अभीष्ट रहा है, इसे उक्त शब्द के नीचे देखिये । २. उसका परिवर्तित अनुवाद उक्त शब्द के नीचे देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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