Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 13
________________ २ सचित्र जैन कथासागर भाग अपने स्वामी के पश्चात् संसार को भयानक दावानल तुल्य जान कर तप, जप और ध्यान में लीन हो गई और अन्त में उसका देहान्त हो गया। उनके पुत्र कमठ एवं मरुभूति अपने माता-पिता की अन्तिम क्रिया से निवृत्त होकर सांसारिक कार्यों में लग गये। वे माता- पिता के विरह से व्यथित हो समय व्यतीत कर रहे थे, इतने में हरिश्चन्द्र नामक एक मुनि से उनका मिलाप हुआ । उन्होंने मुनिवर के समक्ष उपदेश श्रवण करने की अभिलाषा व्यक्त की । तव मुनिवर ने कहा, 'हे महानुभावो! अनादि काल से यह आत्मा कर्म-बन्धन के कारण जन्म एवं मृत्यु के भयंकर कष्ट सहन कर रही है और अज्ञानवश चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कर रही है। इस आत्मा ने अनन्त बार जन्म एवं मृत्यु की वेदना को सहन किया हैं । इसने अनन्त माता-पिता किये हैं । यह संसार की अनादि कालीन स्थिति है, जिसके लिए रुदन मत करो, परन्तु आत्म-विकासक ऐसी धर्म - क्रियाएँ करो जिससे चारित्र अंगीकार करके मोक्ष गये हुए सिद्धों की तरह तुम अपना आत्म-कल्याण कर सको। मोक्ष में गये हुए जीव के जन्म, जरा, मृत्यु आदि नहीं होते । ये पुद्गल नश्वर हैं, आज जो तुम हो, वह कल नहीं रहोगे और कल जो तुम थे, वह आज नहीं हो। धर्म की शरण के अतिरिक्त कदापि हमारा कल्याण नहीं है और धर्म के अतिरिक्त हमारी रक्षा करने का सामर्थ्य अन्य किसी में भी नहीं है।' - १ ऐसी अमृतवाणी श्रवण करके पूर्व पुण्योदय से संसार की भयंकरता समझ कर मरुभूति विरक्त हो गया । उसने गुरुदेव से बारह व्रत ग्रहण किये और वह व्रतधारी श्रावक बन गया। प्राण जायें परन्तु प्रण न जाये इस प्रकार दृढ़तापूर्वक वह व्रतों का आचरण करने लगा । अपनी रूपवती पत्नी के प्रति भी उसकी दृष्टि निर्मल थी और वह विचार करता कि वह दिन कब आयेगा जब मैं चारित्र अंगीकार करूँगा और इस संसार की मोह-माया से मुक्त बनूँगा। गुरुदेव के उपदेश से संयम अंगीकार करने की तीव्र लगन लगी । कमठ तो अनीति एवं दुराचार के मार्ग की ओर उन्मुख हुआ । गुरुदेव का संयोग तो प्राप्त हो जाये, परन्तु धर्म-भावना जागृत होनी दुष्कर है। पूर्व पुण्योदय से धर्म सामग्री मिलती है । मानव-जन्म प्राप्त होना कठिन है । धर्म प्राप्त करना उससे भी अधिक कठिन है और उसमें भी भागवती दीक्षा अंगीकार करना अत्यन्त ही कठिन कार्य है। यौवन की उन्मत्तता में कमठ एवं वसुन्धरा पाप का भय रखे विना दुराचारों का सेवन करने लगे। उन्होंने लोक एवं कुल की मर्यादा का परित्याग कर दिया। वे अति विषयी वन गये। उन दोनों के दुराचार को एक दिन कमठ की पत्नी वरुणा ने देख लिया और वह ईर्ष्या की अग्नि में जलने लगी । दिन-प्रतिदिन बैर लेने की वृत्ति से वैर का दावानल भड़कता रहा । विषय-भोग की तीव्र लालसा उसके रोम-रोम में व्याप्त हो गई और तीव्र कषाय के कारण उसने यह पाप मरुभूति को बता दिया, जिससे मरुभूति

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