Book Title: Jain Gitavali
Author(s): Mulchand Sodhiya Gadakota
Publisher: Mulchand Sodhiya Gadakota

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Page 56
________________ ३६ ये तूतौ ज्ञान ध्यान पूजा तप करलै, षट् अावश्य सुमिर लै सुन भौंरारे ॥२॥ ये तूंती पंच पाप मन वच तन तजदै, देव धरम गुरु भजलै सुन भौंरारे ॥ ३ ॥ ये तूंतौ अपने पदको सुमिरण करलै, पर पद भूल विसर दै सुन औरारे ॥४॥ ये तूतौं शील विरत धारौ हरषाई, तजहु सकल कुटिलाई सुन भौंरारे॥५॥ ये तूं तो धर्म धुरन्धर धार परम उर गिरवर भज वर पाई सुन भौंरारे ॥६॥ ("भौंरारे" की चाल-विवाहमें) ऐसी उत्तम कुलको पायौ, सो तें वृथा गमायो सुन भौंरारे ॥ टेक ॥ अब के तूं श्रावक तन पायौ, रत्नत्रय उर भायौ सुन भौंरारे ॥१॥ देव धरम गुरु नहीं लखायौ, स्वपर भेद नहिं पायौ सुन भौंरारे ॥२॥ मुनि श्रावकको भेद न चीन्हों, जिनपद् चित्त नहिं दीन्हों सुन भौंरारे ॥३॥ रत्नत्रय दश धर्म न जानों विषय कषाय न छानों सुन भौंरारे ॥४॥ त्रेपन किरिया नाहिं पिलानी, सत्रह नेम न जानी सुन भौंरारे ॥५॥ रात दिवसको भेद न पायौ, भक्ष्य अभक्ष्य जु खायौ सुन भौंरारे ॥६॥ पाप पुण्य को भेद न जानों जल बरतौ अनछानों सुन भौंरारे ॥७॥ जिनवर दरश करे नहिं भाई, खोटी गति बधवाई सुन भौंरारे ॥८॥ सकल कलुषता उरमें धारी, सेई है परनारी सुन भौंरारे॥९॥

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