Book Title: Jain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Author(s): Siddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 182
________________ 172 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा अनन्त विभाव पर्याय केवल अभव्य जीव में ही सम्भव है, क्योंकि वह कभी शुद्ध नहीं होता। स्थूल रूप से अकृत्रिम चैत्यालय, सूर्य बिम्ब आदि पुद्गल स्कन्धों की अनादि अनन्त विभाव व्यञ्जन पर्यायें मानी गई हैं / वहाँ भी अर्थ पर्याय सादि सान्त ही होती हैं, अनादि अनन्त नहीं। 5. अभ्यास 61. पर्याय किसका अंश है ? द्रव्य व गुण दोनों का अंश है। द्रव्य का अंश होने से वह सहभावी कहलाती है और गुण का अंश होने से क्रमभावी / 62. किन-किन द्रव्यों में कौन-कौन पर्यायें होते हैं ? जीव व पुद्गल में वैभाविकी शक्ति होने से स्वभाव विभाव दोनों प्रकार की अर्थ व व्यञ्जन पर्याय होती हैं / शेष चार द्रव्यों में उस शक्ति का अभाव होने से केवल स्वभाव व्यञ्जन व अर्थ पर्याय ही होती हैं, विभाव नहीं / 63. द्रव्य में कौन सी पर्याय एक होती है और कौन सी अनेक ? व्यञ्जन पर्याय एक होती है और अर्थ पर्याय अनेक, क्योंकि उनके कारणभूत प्रदेशत्वगुण एक है और अन्य गुण अनेक / 64. एक समय में जीव कितनी पर्याय धारण कर सकता है ? व्यञ्जन पर्याय तो स्वभाव या विभाव में से कोई एक हो सकती है, क्योंकि वह एक ही गुण की होती है, और अर्थ पर्याय एक ही समय में स्वभाव व विभाव दोनों हो सकती हैं, क्योंकि वे अनेक हैं / कुछ गुणों की स्वभाव अर्थ पर्याय हो सकती है और कुछ की विभाव / जैसे - चौथे गुण स्थान में सम्यक्त्व गुण की स्वभाव पर्याय है और शेष गुणों की विभाव / एक समय में पुद्गल कितनी पर्याय धारण कर सकता है ? केवल दो-दोनों ही प्रकार की स्वभाव पर्याय या दोनों ही विभाव पर्याय / क्योंकि स्कन्ध सर्वथा अशुद्ध द्रव्य होने के कारण उसमें दोनों विभाव पर्याय होती है और परमाणु सर्वथा शुद्ध होने के कारण उसकी दोनों पर्याय शुद्ध होती है। 66. पुद्गल में स्वभाव व विभाव दोनों पर्याय क्यों नहीं हो सकती और जीव में क्यों हो सकती है? पुद्गल में कर्तृत्व का अभाव होने के कारण वह दो ही अवस्था में उपलब्ध होता है - सर्वथा शुद्ध या सर्वथा अशुद्ध / वह अपनी अशुद्ध अवस्था को कर्तृत्वपूर्वक शुद्ध करने का प्रयत्न करते हुए आंशिक शुद्ध दशा को स्पर्श नहीं कर सकता। जबकि जीव में कर्तृत्व बुद्धि होने से वह 65.

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