Book Title: Jain Dharm Prakash
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Parishad Publishing House Bijnaur

View full book text
Previous | Next

Page 274
________________ (२४८) से कर्मबन्ध कटता है । वीतरागभाव पाने के लिये वीतरागसर्वज्ञ, वीतराग साधु व वीतराग निग्रंथ जैनधर्म की सेवा करनी उचित है। संसार सुख तृप्तिकारक नहीं है, आत्मीकसुख ही सञ्चा सुख है । इस श्रद्धान का पाना ही सम्यग्दर्शन ( Right belief ) है, जिसे हर कोई समझदार धारण कर सकता है। फिर वह अपने पाचरण को ठीक करता है, जिसके लिये बताया जा चुका है कि उसको आठ मूल गुण पालने चाहिये। एक ही उद्देश्य को लेकर प्राचार्यों ने ४-५ प्रकार से पाठ मूलगुणों का वर्णन किया है। सबसे बढ़िया है-मद्य, मांस, मधु का त्याग तथा स्थूल हिंसा झूठ चोरी कुशील इन चारों का त्याग व परिग्रह का प्रमाण । जिनसेनाचार्य जी ने मधुके स्थान में जुए का त्याग रख दिया। पीछे के प्राचार्यों ने पाँच पाप त्याग के स्थान में उन पाँच फलों का त्याग रख दिया, जिनमें कीड़े होते हैं, जैसे बड़फल, पीपलफल, गूलर, पाकर और अञ्जीर, जिससे लोग सुगमता से धारण कर सकें। जो कोई जैनी हो उसे कम से कम दो मकार तो त्याग ही देना चाहिये-एक तो मदिरा दूसरा मांस। ये दोनों मनुष्य शरीर के वाधक है व अप्राकृतिक आहार हैं। नशा पीने से शरीर व मन अपने काबू में नहीं रहते,

Loading...

Page Navigation
1 ... 272 273 274 275 276 277 278 279