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इतिहास के प्रति जैन दृष्टि
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डॉ. शशिकान्त
इतिहास
'इतिहास' का सामान्य अर्थ है ' इति इह आसीत् ' - अर्थात् 'यहाँ ऐसा हुआ'। जो कुछ इस लोक में घटित होता है, उसका एक काल - क्रमानुसार विवरण सामान्य रूप से 'इतिहास' का बोध कराता है, परन्तु इतिहास लेखन में दृष्टि घटना क्रम के उल्लेख मात्र पर ही नहीं होती है । उसका मन्तव्य दो प्रकार से देखा जा सकता है, एक तो यह कि पहले जो कुछ हुआ है, उन घटनाओं से हम यह मार्गदर्शन प्राप्त करें कि अप्रिय घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो, और दूसरे यह कि पहले जो कुछ उत्तम और सुखद हुआ है, उससे आगे भी प्रगति करने की प्रेरणा लें । इस प्रकार के इतिहास - लेखन की प्रवृत्ति भी देखी गयी है कि लेखक अपने आम्नाय, पंथ या जाति को महिमा मंडित करने की दृष्टि के साथ ही दूसरे की अवमानना करने का भी प्रयत्न करता है।
जिस समय से विदेशियों का आक्रामक स्वरूप प्रत्यक्ष हुआ और उन्होंने इस देश पर अपना आधिपत्य जमाने में सफलता प्राप्त की, उसके पूर्ववर्ती काल में भारत में ही विभिन्न सांस्कृतिक धाराएँ प्रतिस्पर्धारत थीं । वैदिक ब्राह्मणीय दार्शनिक परम्पराओं और श्रमणीय जैन एवं बौद्ध परम्पराओं में अपना श्रेष्ठत्व प्रतिपादित करने की होड़ भी थी। 12वीं शताब्दी से मुस्लिम इतिहासकारों ने भारत की जन-संस्कृति की अवमानना का सबल प्रयत्न किया। 18वीं शताब्दी से अँग्रेज इतिहासकारों ने एक सुनियोजित ढंग से भारतीय इतिहास और संस्कृति की अवमानना का सफल प्रयास किया । विगत शताधिक वर्षों में भारत के भी इतिहास - मनीषियों ने विदेशी प्रभाव में उसी दृष्टि से इतिहास का प्रस्तुतीकरण किया, परन्तु कुछ विद्वानों ने जहाँ अपने धार्मिक कदाग्रह के अधीन मात्र अपने अनुश्रुतिगम्य कथानकों को मान्यता दी, वहीं कुछ विद्वानों ने एक समग्र और व्यापक दृष्टि का परिचय भी दिया तथा इतिहास के पूर्व उपेक्षित स्रोतों का भी समुचित उपयोग किया। इन विद्वानों में बाबू कामता प्रसाद जैन व इतिहास - मनीषी डॉ. ज्योति प्रसाद जैन का उल्लेख किया जाना प्रासंगिक होगा।
अरबी-फारसी में इतिहास को तवारीख कहा जाता है । 'तवारीख', 'तारीख' का
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