Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 77
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ को विराजमान किया। उत्कृष्ट दान देने में तत्पर उस राजा को श्रद्धा, भक्ति, शक्ति, निर्लोभपना, ज्ञान, दया और क्षमा से दाताओं के सात गुण प्रगट हुए थे। प्रतिगृह, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम, कायशुद्धि, वचनशुद्धि, मनशुद्धि और आहारशुद्धि ये नो प्रकार की भक्ति - नवधाभक्ति गुणों की खान कहलाती है। ये पुण्यों को प्राप्त कराने वाली है। दान के समय राजा ने यह नवधाभक्ति की थी। जो विशुद्ध, प्रासुक हो, मिष्ट हो, कृत आदि दोषों से रहित हो, मनोज्ञ हो और छहो रसों से परिपूर्ण हो। तथा ध्यान-अध्ययन आदि का वृद्धिकारक हो उसे श्रेष्ठ आहार कहते हैं। उपरोक्त सातों गुणों से सुशोभित उस राजा ने मोक्ष प्राप्त करने के लिये उन दोनों चारण मुनियों को विधि पूर्वक तृप्त करने वाला उत्तम भोजन दिया। राजा की दोनों रानियों ने श्रेष्ठ दान की अनुमोदना की और भक्ति पूर्वक सुश्रुषा, प्रणाम तथा विनयादि द्वारा बहुत पुण्य प्राप्त किया। सत्यभामा ब्राह्मणी ने भी अत्यन्त भक्ति-भाव से मुनिराजों का आदर-सत्कार किया। अत: उनने भी रानियों के योग्य सत्कार्य कर पुण्य प्राप्त किया। सत्य है कि अच्छे परिणामों से क्या-क्या नहीं मिलता। दोनों मुनिराजों ने समभाव से आहार लिया और उस घर को पवित्र करके शुभाशीर्वाद देकर वे आकाश मार्ग से गमन कर गये। उस दान से उत्पन्न हुए आनन्द रस से जिसका मन अत्यन्त तृप्त हो रहा है - ऐसा वह राजा अपने को कृतकृत्य मानने लगा और अपने गृहस्थाश्रम को सफल मानने लगा। ___ कौशाम्बी नगर में एक महाबल नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम श्रीमती था। तथा उन दानों के श्रीकान्ता नाम की पुत्री थी। रूप लावण्य आदि गुणों से विभूषित श्रीकान्ता का विवाह पुण्य कर्म के उदय से राजा श्रीषेण के पुत्र इन्द्र के साथ विधिपूर्वक हुआ था। उसी राजा के अनन्तमती नाम की विलासिनी (नौकरानी) थी, जो रूपवती तथा गुणवती थी। राजा ने स्नेह भेंटस्वरूप वह अनन्तमती (विलासिनी) श्रीकान्ता के साथ ससुराल

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