Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 50
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/48 ___ भरत - इस शुभ-अशुभ के व्यापार में ही तो हम उलझे हैं माँ ! शुद्ध की ओर दृष्टि ही नहीं जाती। मृण्मयी काया के खेल में हम लीन हैं और चिन्मयी के अनन्त रहस्यों की ओर से हम मुख फेर बैठे हैं। कैकेयी - राम का राज्याभिषेक क्या तुम्हें इष्ट नहीं है वत्स ! भरत - है क्यों नहीं। ज्येष्ठ बन्धु राम उसके उत्तराधिकारी हैं। उनका तिक होना ही चाहिये। यह पुण्य है। कैकेयी - तुम्हारी अभिलाषा है वत्स ! राज्य करने की ? भरत – (दृढ़ता से) नहीं, कदापि नहीं; मेरा तो मार्ग ही दूसरा है माँ ! यदि घर में भी रहता तो भी ऐसा अनर्थ नहीं कर सकता था। दूसरे का ग्रास छीन कर खाना अन्याय है माँ ! कैकेयी- दूसरे कहाँ पुत्र ! राम भी तो अपने ही हैं। तुम दोनों में अन्तर ही क्या है ? भरत - अन्तर, बहुत बड़ा है माँ ! वे विशेष पुण्यवान है, हम तीनों भाइयों से ज्येष्ठ हैं। आयु के साथ गुणों में भी श्रेष्ठ हैं। मैं तो केवल परिवर्तनशील नश्वर मिथ्या संसार की ही बात कर रहा हूँ। ये पुण्यमयी वैभव क्या सदा स्थिर रहने वाला है ?...मैं भूल ही गया, देवपूजन का समय हो रहा है, मैं भी स्नान से निवृत्त हो लूँ माँ ! (भरत का प्रस्थान, कैकेयी विचारों में पुनः खो जाती है।) कैकेयी - (स्वगत) आज भरत को क्या हो गया ? मेरा लाल इतना उद्विग्न कभी नहीं हुआ। विचित्र है उसकी वृत्ति ! भला इस आयु में कौन विरक्ति की बात करता है।.......अवश्य कहीं काँटा है। मैं अपने लाल के

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