Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 21
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२ 19 दोनों ओर की सेना ज्यों ही युद्ध के लिये तैयार हुई कि दोनों ओर से मंत्रियों ने उन्हें विराम का संकेत किया और विचार किया कि लंकेश प्रतिवासुदेव हैं और महाराजा बालि चरम शरीरी हैं, अतः मृत्यु तो दोनों की असम्भव है. फिर व्यर्थ में सैन्य शक्ति का विनाश क्यों हो ? अनेक 9 मातायें - बहनें विधवा क्यों हों ? निर्दोष बालक अनाथ क्यों हों ? उन्हें रोटियों के टुकड़ों की भीख क्यों मँगवायें ? श्रेष्ठ तो यही है कि दोनों राजा ही आपस में युद्ध करके फैसला कर लें । तब दोनों के मंत्रियों ने अपने-अपने राजाओं से निवेदन किया - हे राजन् ! आप दोनों ही मृत्युंजय हो, तब आप दोनों ही युद्ध का कुछ हल निकाल लें तो उचित होगा, सेना का व्यर्थ में संहार क्यों हो ? यदि आप चाहें तो सैनिक युद्ध को टालकर दोनों ही राज्यों की सैन्यशक्ति तथा उस पर होने वाले कोष की हानि से बचा जा सकता है। मंत्रियों की बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह दोनों ही राजाओं को उचित प्रतीत हुई, अतः दोनों ही राजा युद्धस्थल में उतर पड़े। कुछ ही समयों में दोनों के बीच घमासान युद्ध छिड़ गया । सम्पूर्ण सेना में कुछ विचित्र प्रकार का उद्वेग हो उठा, वे कुछ कर भी नहीं सकते थे और चुपचाप बैठा भी नहीं जा रहा था । होनहार के अनुसार ही दोनों के अन्दर विचारों ने जन्म लिया । मोक्षगानी महाराजा बालि का तो वैराग्य वृद्धिंगत होने लगा और नरकगामी रावण का प्रतिसमय क्रोधासुर वृद्धिंगत होने लगा। अहो ! महाराजा बालि तो चरमशरीरी थे

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