Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ३ / २५
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राजकुमार ने जबाव दिया – “उसके लिए वह सब शक्य है । '
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मित्र मण्डली अपने हृदय की भावना पूरी करना चाहती थी, जिसका आज उन्हें अवसर भी मिल गया था । उन्होंने मन ही मन प्रसन्न होते हुए कहा 'अब आयेगा मजा । "
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राजकुमार ने उन सबको विश्वास दिलाया और ब्रह्मगुलाल के पास चला गया। (अरे रे, राजकुमार मित्र- मण्डली के प्रपंच में फंस गया)
(२)
नाट्यकला विशारद ब्रह्मगुलाल पद्मावती पोरवाल जाति का एक जैन युवक था, उसका जन्म विक्रम संवत् १६०० के लगभग टापानगर में हुआ था, टापानगर की राजधानी सुदेश थी । ब्रह्मगुलाल को बाल्यकाल से ही नाट्यकला से प्रेम था और अब युवा अवस्था में उसकी नाट्यकला का पूर्ण विकास हो चुका था । (यह विवरण “जैनमित्र" में प्रकाशित लेख के अनुसार लिखा गया है ।)
राजकुमार की सभा में वह बारम्बार अपनी कला का प्रदर्शन करता था, भाव-परिवर्तन की अद्भुत कला पर राजकुमार और उसके कुछ मित्र मुग्ध थे । दर्शकों का हृदय अपनी ओर आकर्षित करने की उसमें अद्भुत् शक्ति थी, जो स्वाँग वह धारण करता, उसमें स्वाभाविकता का वास्तविक दर्शन होता था - ऐसा होने पर भी राजकुमार के कितने ही मित्र उससे प्रसन्न न थे, वे किसी भी प्रकार से उसे अपमानित करने का अवसर देख रहे थे। अब जब उन्हें यह अवसर मिल ही गया तो वे बहुत खुश हुए और उन्होंने उपरोक्त प्रकार से परीक्षा लेना निश्चित किया ।
(३)
राजकुमार ने ब्रह्मगुलाल से कहा - " कलाविद् बंधु ! आज तुम्हें अपनी कला को अच्छी तरह से दिखाना पड़ेगा, मेरी मित्र - मण्डली आज तुम्हारी परीक्षा करना चाहती है।