Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग- -२/६७
वन में जहाँ हिंसक प्राणियों का भय न हो - ऐसा स्थान देखकर, किसी गुफा को साफ करके वहाँ रहेंगे, यहाँ सिंह, वाघ और सर्पों का डर है । "
सखी के साथ अंजना जैसे-तैसे चलती है, साधर्मी के स्नेह-बंधन से बँधी हुई सखी उसकी छाया की तरह उसके साथ ही रहती है। अंजना भयानक वन में भय से डर रही थी, उस समय उसका हाथ पकड़कर सखी कहती है - " अरे मेरी बहिन ! तू डर मत. .मेरे साथ चल..
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सखी का मजबूती से हाथ पकड़कर अंजना चलने लगी। थोड़ी दूर पर एक गुफा दिखाई दी।
सखी ने कहा
लेकिन अंजना ने कहा - " हे सखी ! अब मेरे में तो एक कदम भी चलने की हिम्मत नहीं रही.. अब तो मैं थक गई हूँ ।"
-
" वहाँ चलते हैं।"
सखी ने अत्यंत प्रेमपूर्वक शब्दों से उसे धैर्य बँधाया और स्नेह से उसका हाथ पकड़कर गुफा के द्वार तक ले गई। दोनों सखी अत्यंत थकी हुई थीं। बिना विचारे ही गुफा के अन्दर जाने में खतरा है - ऐसा विचार करके थोड़ी देर बाहर ही बैठ गयीं, लेकिन जब दोनों ने गुफा में देखा...... गुफा का दृश्य देखते ही दोनों सखी आनन्दाविभूत होकर आश्चर्यचकित हो गईं।
- ऐसा क्या देखा था उन्होंने ?
-
अहो ! उन्होंने देखा कि गुफा के अन्दर एक वीतरागी मुनिराज ध्यान में विराजमान हैं । चारणऋद्धि के धारक. इन मुनिराज का शरीर निश्चल है, मुद्रा परमशांत और समुद्र के समान गंभीर है, आँखें अन्तर में झुकी हुई हैं, आत्मा का जैसा यथार्थ स्वरूप जिन - शासन में
कहा है - वैसा ही उनके ध्यान में आ रहा है । पर्वत जैसे अडोल हैं।