Book Title: Jain Dharm Ka Parichay
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 292
________________ सहायता नहीं करता है / (ii) इसी प्रकार 'संसार के संबध भी विचित्र बनते है / माता पत्नी बनती है, पत्नी माता! धिक्कार है ऐसे भव-भ्रमण को' इस प्रकार की चिन्तन-धारा संसार-खेद को तथा सत्-प्रवृत्ति को उत्पन्न करती 8. संस्थानविचय :- इसमें 14 राजलोक की व्यवस्था का चिन्तन किया जाता है / अधोलोक उल्टी रखी हुई बाल्टी या बेंत की टोकरी जैसा है / मध्य लोक ढपली जैसा है / उर्ध्व लोक खडे ढोल या शराब-संपुट के सदृश्य है / अधोलोक में परमाधामी आदि के तीव्र त्रास से पूर्ण सात नरक-भूमियां हैं / मध्यलोक में 'मत्स्य गलागल' (जिसकी लाठी उसकी भेंस) न्याय के प्रदर्शनभूत असंख्य द्वीप-समुद्र हैं / उर्ध्वलोक में शुभ पद्गलों की विविध घटनाएं हैं / इनका तथा सकल विश्व में रहे हुए शाश्वत-अशाश्वत अनेकविध पदार्थो पुद्गल के विचित्र परिणाम जीवो की कर्मवश विविध विटबनाएँ इत्यादि इत्यादि षड्द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की महासत्ता का विचार आता है / इस ध्यान के फलस्वरूप चित्त का विषयान्तर में जाना रुक जाता है और चंचल एवं विह्वल होना बन्द हो जाता है / 9. आज्ञाविचय :- इसमें यह चिन्तन करना चाहिए 'अहो! इस जगत में हेतु, उदाहरण, तर्क आदि का अस्तित्व होने पर भी हमारे जैसे प्राणीयों में बुद्धि का वैसा अतिशय नही / ' अतः आत्मा-संबंधी 2 2878

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