Book Title: Jain Darshan Chintan Anuchintan Author(s): Ramjee Singh Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 6
________________ अपनी बात जैन दृष्टि प्रारम्भ से ही अन्तर्मुख रही है। यही इसकी शक्ति भी है, यही इसकी कमी भी रही है । यही कारण है कि आधुनिक युग में भी जैनदर्शन पर कोई प्रामाणिक किन्तु साथ-साथ समीक्षात्मक ग्रंथ का प्रणयन नहीं हुआ है। राष्ट्रभाषा में तो स्व. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य के "जैन दर्शन' में जो कमियां रही हैं, उन्हें भी पूर्ण करने का प्रयास नहीं हुआ है। प्रवचनों के संकलन दर्शन के मूलग्रंथ नहीं हो सकते । जैन-जीवन दृष्टि पर श्रद्धा के कारण विगत ३० वर्षों से जैन-दर्शन से थोड़ा बहुत सम्बन्ध रहा है । लेकिन श्रद्धा एवं वैचारिक मूल्यांकन में मुझे कभी विरोध नहीं दीखा । जैसे, मुझे अनेकांत-दृष्टि अपनी जीवन-दृष्टि लगती है क्योंकि यह अहिंसोन्मुख दृष्टि है। लेकिन अनेकांत स्थापना के लिये जो शास्त्रीय तर्क दिये गये हैं, वहीं स्थिर रहना सृजनात्मकता को खंडित करना है । उसी तरह व्यक्तिगत अहिंसा के साथ "संरचनात्मक या सामाजिक अहिंसा के बिना अहिंसा-विचार निर्जीव रहेगा । अपरिग्रह व्यक्तिगत-धर्म से कहीं अधिक सामाजिक धर्म है। सर्वज्ञता-सिद्धि के लिये शास्त्रीय प्रमाण को पूर्णविराम मान लेने से विचार का विकास क्रम रुकेगा। मेरा मानना है कि जैन-दर्शन का विकास अवरुद्ध-सा हो गया है । जब तक पुरानी स्थापनाओं के लिये नये तर्क या उनके युक्तियुक्त खंडन का साहस नहीं होगा, सृजनात्मक साहित्य का आविर्भाव नहीं होगा। अभी तो तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक साहित्य का भी अभाव है। इस पुस्तक के लेख फैले समय में लिखे गये हैं, फिर भी प्रयास रहा है कि श्रद्धा को शक्ति मिले, बौद्धिकता खंडित न हो और थोड़ी बहुत सृजनात्मकता भी आ जाए। मैं जैन विश्वभारती परिवार एवं प्रेस का बहुत ऋणी हूं कि इन पृष्ठों को छापकर उन्हें प्रकाश में लाया ।। परम पूज्य युवाचार्य महाप्रज्ञ ने इसे छपने के योग्य माना, इसे मैं उनका आशीर्वाद मानता हूं। रामजी सिंह, कुलपति, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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