Book Title: Jain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh
Author(s): Dharmanand Kaushambi
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 22
________________ ( २० ) बहुजन सम्मत इस अर्थ को कोशाम्बीजो क्यों नहीं ग्रहण करते ? अन्तिम अवस्था में भी तो अपने स्थान पर आजाना चाहिये अस्तु, अब इनकी बात यहीं रहने देते हैं। वैदिक सम्प्रदाय में देखिये । श्रुति वाक्य है कि “श्रजानालभेत" अर्थात् "अजों का पालम्भन यानी यज्ञार्थ हिंसा करनी चाहिये । अब यहां पर दो अर्थ उपस्थित होते हैं, अज शब्द का एक अर्थ बकरा होता है। अतः कितनेक लोग अर्थ करते हैं कि बकरों का वध करके यज्ञ करना चाहिये । दूसरा अर्थ तीन वर्ष का धान्य विशेष होता है। इन दोनों मतों में किसका मत लेना ? ऐसे विषम स्थान में मीमांसा निर्णय कर रही है कि धान्य अर्थ लेने से यदि श्रुति का समन्वय भी हो जाता है, तो इसी में अधिक फल है। इसलिये प्रसिद्ध अर्थ छोड़कर अप्रसिद्ध ही अर्थ लेना उचित है। क्योंकि अतिका समन्वय भी हो जाता है और हिंसा से भी बच जाते हैं । अब यहां पर विद्वान् परीक्षक लोग विचार करें कि मीमांसा की इस युक्तियुक्त पद्धति को स्वीकार करने से भगवान बुद्ध हो या महावोर हों, उनमें कही मांस खाने का आरोप आता है क्या? कदापि नहीं। परन्तु लोकायतिक (चार्वाक) मत के अनुयायी उदरम्भरी लोगों ने अपना स्वार्थ साधन करने के लिये अपना धर्म, अपने रीतिरिवाज और अपने व्यक्तित्व को तो नष्ट कर ही डाला “ बाण बाण गये दश हाथ की डोरी भी लेते गये" अर्थात् दुष्ट बैल खुद तो भाग ही जाता है, लेकिन अपने साथ दश हाथ की रस्सी भी लेते जाता है इस कहावत के अनुसार पवित्र जैन धर्मानुयायियों को भी धोखे में डालने लगे। परन्तु जैन समाज को इन धोखे बाजों के फन्दे में नहीं आना चाहिये । इस सूत्र का समन्वय अपने जैन धर्म के प्राचीन तथा आधुनिक विद्वानोंने अच्छी तरह खुलासावार कर दिया है । इस स्थल पर हम भी अपना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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