Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 111
________________ मे वढोतरी हुई है और भोगवृत्ति के नये-नये आयाम खुले हैं । स्कूलो, कॉलेजो और विश्वविद्यालयो मे शिक्षाथियो की अपार भीड वढी है और जीवन तथा समाज मे एक विशेष प्रकार की तार्किकता, जटिलता, वौद्धिकता का विकास हया है। इस तथाकथित जीवन निर्वाहकारी शिक्षा के साथ-साथ जीवननिर्माणकारी शिक्षा पर वल न दिये जाने के कारण जीवन और समाज मे अनियन्त्रित असतुलन और विखराव पैदा हो गया है, जिससे शिक्षा विकारो की मुक्ति और आत्मशक्तियो के प्रस्फुटन की प्रक्रिया न वनकर सघर्प, हिंसा, घुटन, टूटन, विघटन, सक्लेश और आत्मघात का कारण बन गयी है। अत प्राज की शिक्षण व्यवस्था और दृष्टिकोण मे क्रान्तिकारी परिवर्तन ' अपेक्षित है। मनुष्य केवल शरीर नहीं है, उसके मस्तिष्क और चित्त भी है। मस्तिष्क के विकास की पूरी सुविधाए जुटा कर भी हम शात और सुखी नही हो सकते क्योकि केवल शुष्क चिंतन से सहृदयता नही पैदा हो सकती। सहृदयता का वास चित्त के सस्कारो मे है। आज की शिक्षा मे चित्त के सस्कारो का कोई विशेप महत्त्व नही है, वहा महत्त्व है वित्त के अर्जन का । जव तक शिक्षा का केन्द्र वित्त का अर्जन रहेगा, वह मुक्ति के वजाय वधन का कारण अधिक बनेगी। शिक्षा मुक्ति का साधन तभी बन सकती है जब वह अपने केन्द्र मे चित्त की शुद्धि को प्रतिष्ठित करे । जब शिक्षा के केन्द्र मे चित्त-शुद्धि का लक्ष्य रहेगा, तव ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप परस्पर जुडेंगे। इन चागे को जोडने का काम अध्ययन से सम्भव नहीं है। यह सम्भव है स्वाध्याय से । स्वाध्याय का अर्थ हैअपने आपका अध्ययन, अपने द्वारा अपना अध्ययन । इसमे व्यक्ति यात्रिक नही, हार्दिक बनता है, इसमे विखराव नही भराव होता है, इसमे व्यक्ति उत्तेजित नही, सवेदनशील बनता है। मुद्रण के आविष्कार और ज्ञान-विज्ञान के विकास से आज अध्ययन का क्षेत्र काफी विकसित-विस्तृत हो गया है। प्रतिदिन हजारो, लाखो पुस्तकें छपती और विकती है तथा करोडो व्यक्ति उन्हे पढते है । पर एक समय ऐसा भी था जब छापेखानो के अभाव मे अध्ययन-अध्यापन का मूल आधार कतिपय हस्तलिखित प्रतियां और उपदेश व प्रवचन-श्रवण ही था। आज तो शिक्षण सस्थाग्रो के अलावा पुस्तकालय, पत्र-पत्रिकाए, फिल्म, रेडियो, टेलीविजन, टेप-रेकार्डर ग्रादि ज्ञान के कई नये-नये साधन विकसित हो गये हैं। ६७

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