Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 105
________________ (८५) (७) तथा कितने ही पाठ यह सिद्ध करते हैं कि जो ज्या--- करण की रीति से अनभिन्न है वह कदापि उसका यथार्थ अर्थ नहीं समझ सक्ता है. नमूनामात्र श्रीदशवैकालिक सूत्र के नवमाध्ययन.. के तृतीयोद्देशक की एक गाथा लिखी जाती है, जिसका अक्षरा . विना व्याकरण शास्त्र की रीति के कोई भी ढुंढकमतानुयायी कर .. देवे तो फिर हम भी कह देवेंगे कि व्याकरण के पढ़ने की कोई .. असावश्यकता नहीं है, वह पाठ यह है ॥ - गुणेहिं साहू अगुणहिँ साहू । गिण्हाहि साहू गुणमुचं साहू ॥. विआणिआ अप्पगमप्पएणं । जो रागदोसे हिं समो स पुज्जो ॥११॥ इति.' . तटस्थ-वेशक ! इन पाठों से व्याकरण का पढ़ना.जरूरी . मालूम देता है और इसी वास्ते बेधड़क होकर पार्वती ने निषेध नहीं.... किया मालूम देता है। विवेचक-इसमें क्या शक है, इसी लिये तो पार्वती को चाकाक मानते हैं, नीतिकार का भी कथन है कि “स्त्रियाचरित्रं : पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्यः" परंतु देखना इस चालाकी ने ही खैदान मैदान कर देना है। ज़रा शास्त्रों के पाठको तो शोच लिया करे, सब ही जगह “ तथा काले तथा धौले.न. किया करे । किसी ने परमाधार्मियों के मुद्गर से नहीं बचाना है, श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्र के सातवें अध्ययन के पाठ की बाबत था। अपनी अज्ञता क्यों दिखानी थी? क्योंकि परमार्थ के जानकारतो, पार्वती के लिखे अर्थ से ही श्रीस्वामी आत्मारामजी का सम्यक्त्व... शल्योद्धार ग्रंथ में लिखा अर्थ -सस ही मानते हैं, बाकी अनः । पुरुषों का तो कहना ही क्या है ? जो मरजी में आवे सो पके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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