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जैन-भक्तिके भेद
श्रीमद्विद्यानन्द स्वामीने, श्रीपुर पार्श्वनाथस्तोत्रमें, श्रीपुरके जिनमन्दिरमें प्रतिष्ठित पार्श्वप्रभुकी मूत्तिकी वन्दना करते हुए लिखा है, "हे बहन् ! आप करुणाके निधान हैं । अतः संसार-सागरमें भटकते हुए हम सबको शरण देवें
और संसार-परिभ्रमणसे मुक्त करें।" श्री जिनप्रभसूरिने 'हस्तिनापुरतीर्थस्तवनम्' में कहा है, "तीन तीर्थंकरों ( शान्ति, कुन्यु और अरह ) के पार कल्याणकोत्सवोंसे सुशोभित और गंगाके सलिलसे पवित्र गजपुर तीर्थरल, चिरकाल तक जीवित रहे।" उन्होंने ही शत्रुजयतीर्थको महिमाका उल्लेख करते हुए लिखा है, "हे शत्रुञ्जयशैलेश ! बड़े-बड़े विद्वान् तुम्हारे गुणोंका लेश भी वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं । तुम्हारी यात्राके लिए समुद्यत संघके रथ, अश्व, उष्ट्र और नृपोंके पद-तलोंसे उठी हुई धूल भव्य जनोंके पापोंको दूर करने में समर्थ है।"
तीर्थ-यात्राएँ
प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ 'राजाबलिकथे' में लिखा है कि-भद्रबाहुके शिष्य विशाखाचार्य ने चोल और पाण्डय देशोंमें पर्यटन करते हुए, वहाँके जिनालयोंको
१. शरण्यं नाथाऽर्हन् भव-मव भवारण्य-विगतिघ्युतानामस्माकं निरवकर-कारुण्य-निलय । यतोऽगण्यारपुण्याच्चिरतरमपेक्ष्यं तव पदं परिप्राप्ता मक्त्या वयमचल-लक्ष्मीगृहमिदम् ॥ श्रीमद्विद्यानन्दस्वामी, श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र : हिन्दी-अनूदित, सरसावा,
अगस्त १९४९, श्लोक २९, पृ०५१ । २. तादृग्विधैरतिशयैः पुरुषप्रणीतैर्विभाजितं जिनपतित्रितयोमहेश्च । भागीरथीसलिलसङ्गपवित्रमेतजीयाच्चिरं गजपुरं भुवि तीर्थरत्नम् ॥ श्रीजिनप्रभसूरि, हस्तिनापुरतीर्थस्तवनम् : विविधतीर्थकरूप : सिंधी जैन ज्ञानपीठ, शान्तिनिकेतन, १९३४ ई०, श्लोक १९, पृष्ठ ९४ । ३. श्रीशत्रुजय शैलेश ! लेशतोऽपि गुणास्तव ।
कैावर्णयितुं नाम पार्यन्ते विदुषैरपि । स्वद्यानाप्रचलत्संघरथाश्वोष्ट्रनृपादजः। रेणुरने लगन् मध्यपुंसां पापं व्यपोहति ॥ देखिए, वही : शत्रुञ्जयतीर्थकल्प : श्लोक १२५, १९७, पृष्ठ ५।