Book Title: Jain Bhajan Ratnavali
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 25
________________ २१ वने हैं जब से यह फिरके.. दशा बिगड़ी है जिन मत की । तरका व तुम्हें दिल से, हटाना ही मुनासिव है || ३ || दिगम्बर और सितम्बर मिल, फैसला घर में कर लीजे । न्यायमत अब तो आपस में, निभाना ही मुनासिव है ॥ ४ ॥ २२ (चाल) कुवाली (ताल-कहरवा) है बहारे बाग़ दुनिया चंदरोज़ | व्यर्थ व्यय करना कराना छोड़टो । छोड़दो बहरे प्रभू तुम छोटो ॥१॥ नाच भारत को नचाया खूब सा । अव तो रंडियों का नचाना छोड़दो || २ || कर दया दुख्तर फिरोशी छोड़दो । बूढ़ों के सेहरा लगाना छोड़दो ||३|| लुट चुकी सारी वहार अब आप की । वाग़ बाडी का लुटाना छोड़ दो ||४|| वस जो बस रहने दो भूर और फेंक को । इस तरह धन का लुटाना छोड़ दो ||५|| न्यायमत उपकार औरों का करो । खुद गरज़ बनना बनाना छोड़ दो ||६|| 1

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