Book Title: Jain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

View full book text
Previous | Next

Page 120
________________ १२. जरा-मरण- जन्म धारण कर वृद्धावस्था और मृत्यु को प्राप्त होना जरा-मरण है। जरा-मरण की तुलना भी आयुष्य कर्म के भोग से की जा सकती है। आयुष्य-कर्म का क्षय होना ही जरामरण है। __ इस प्रकार बौद्ध-दर्शन के प्रतीत्यसमुत्पाद और जैन-दर्शन के कर्मों के वर्गीकरण में कुछ निकटता देखी जा सकती है। यद्यपि दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि बौद्ध-दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद की कड़ियों में पारस्परिक कार्य-कारण श्रृंखला की जो मनोवैज्ञानिक योजना दिखाई गई है, वैसी जैन कर्म-सिद्धान्त में नहीं है। उसमें केवल मोहकर्म का अन्य कर्मों से कुछ सम्बन्ध खोजा जा सकता है। फिर भी पंचास्तिकायसार में हमें एक ऐसी मनोवैज्ञानिक योजना परिलक्षित होती है, जिसकी तुलना प्रतीत्युसमुत्पाद से की जा सकती है। ७. महायान दृष्टिकोण और अष्टकर्म महायान बौद्ध-दर्शन में कर्मों का ज्ञेयावरण और क्लेशावरण के रूप में वर्गीकरण किया गया है। वह जैन दर्शन के कर्म वर्गीकरण के काफी निकट है। क्लेशावरण बन्धन एवं दुःख का कारण है जबकि ज्ञेयावरण ज्ञान के प्रकाश या सर्वज्ञता में बाधक है। क्लेशावरण जैन-दर्शन के चारित्र मोह कर्म और ज्ञेयावरण केवलज्ञानावरण कर्म से तुलनीय है। वैसे जैन विचारणा द्वारा स्वीकृत कर्म के दो कार्य आवरण और विक्षेप की तुलना भी क्रमशः ज्ञेयावरण और क्लेशावरण से की जा सकती है। ८. कम्मभव और उप्पत्तिभव तथा घाती और अघाती कर्म अष्ट कर्मों में आत्मा के स्वभाव के आवरण की दृष्टि से चार कर्म घाती और चार कर्म अघाती माने गये हैं, लेकिन यदि नवीन बन्ध या पुनर्जन्म उत्पादक है, शेष सभी कर्मों का बन्ध मोह-कर्म की उपस्थिति में ही होता है। मोह-कर्म की अनुपस्थिति में ऐसा कोई बन्ध नहीं होता जिसके कारण आत्मा को जन्ममरण के चक्र में फँसना पड़े। बौद्ध-दर्शन में आत्मा के स्वभाव को आवरित करने वाले घाती और अघाती कर्मों के सम्बन्ध में तो कोई विचार उपलब्ध नहीं है लेकिन उसमें कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया [113 ]

Loading...

Page Navigation
1 ... 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146