Book Title: Jain Arti Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 163
________________ सहस्रकूट जिनबिम्ब की आरती आरति करो रे, श्री सहस्रकूट के जिनबिम्बों की आरति करो रे। टेक.। इनकी आरति जनम जनम के, पाप तिमिर को हरती है। पुण्य सूर्य की दिव्यप्रभा से, अन्तर कलियाँ खिलती हैं।। आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, श्री सहस्रकूट के जिनबिम्बों की आरति करो रे॥१॥ श्री जिनसेनसूरि ने प्रभु के, सहस्र नाम बतलाए हैं। मानो उनके ही प्रतीक में, ये जिनबिम्ब बनाए हैं।। आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, श्री सहस्रकूट के जिनबिम्बों की आरति करो रे।।२।। एक हजार आठ खड्गासन, प्रतिमा हैं इसमें रहती। जिनवर के इक सहस आठ नामों को जो प्रगटित करतीं।। ___ आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, श्री सहस्रकूट के जिनबिम्बों की आरति करो रे।।३।। एक हजार आठ लक्षणयुत, काय मुझे भी मिल जावे। इनके वंदन से मुझको, “चंदना'' यही फल मिल जावे।। आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, श्री सहस्रकूट के जिनबिम्बों की आरति करो रे।।४।। 163

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