Book Title: Jain Adhyatma Academy of North America
Author(s): Jain Center of Southern America
Publisher: USA Jain Center Southern California
View full book text
________________
(चतुर्थ अध्याय) १. देव चार निकायवाले हैं। २. आदि के तीन निकायों में पीत पर्यन्त चार लेश्याएं हैं। ३. वे कल्पोपपन्न देव तक के चार निकाय के देव क्रम से दस, आठ, पाँच और बारह भेद वाले हैं। ४. उक्त दस आदि भेदों में से प्रत्येक इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्वि षिक रूप हैं। ५. किन्तु व्यन्तर और ज्योतिष्क देव त्रायस्त्रिंश और लोकपाल इन दो भेदों से. रहित हैं । ६. प्रथम दो निकायों में दो-दो इन्द्र हैं। ७. ऐशान तक के देव कायप्रवीचार अर्थात् शरीर से विषयसुख भोगनेवाले होते हैं । ८. शेष देव स्पर्श, रूप, शब्द और मन से विषय सुख भोगनेवाले होते हैं । ६. बाकी के सब देव विषय-सुख से रहित होते हैं । १०. भवनवासी देव दसप्रकार के हैं-असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुवर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्ककुमार । ११. व्यन्तरदेव आठ प्रकार के हैं-किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच, १२. ज्योतिषी देव पांच प्रकार के हैं-सूर्य. चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे। १३. ज्योतिषी देव मनष्यलोक में मेरू की प्रदक्षिणा करने वाले और निरन्तर गतिशील हैं। १४. उन गमन करने वाले ज्योतिषियों के द्वारा किया हुआ कालविभाग है। १५. मनुष्यलोक के बाहर ज्योतिषी देव स्थिर रहते हैं। १६. चौथे निकाय के देव वैमानिक हैं। १७. वे दो प्रकार के हैंकल्लोपपन्न और कल्पातीत। १८. वे ऊपर-ऊपर रहते हैं। १६. सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार तथा आनत-प्राणत, आरण-अच्यत, नौ ग्रंवेयक और विजय, वैजयन्त, जयन्त अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि में वे निवास करते हैं । २०. स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या, विशुद्धि, इन्द्रियविषय और अवधिविषय की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देव अधिक हैं। २१. गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देव हीन हैं । २२. दो तीन कल्प युगलों में और शेष के क्रम से पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले देव हैं । २३. ग्रे वेयकों से पहले तक कल्प हैं।
51
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org