Book Title: Jain 40 Vratha katha Sangraha
Author(s): Dipchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 12
________________ - पीठिका ******************************** गतिके जीवोंका शरीर वैक्रियक है, जो कि अतिशय पुण्य व पापके कारण उनको उसका फल सुख किंवा दुःख भोगनेके लिए ही प्राप्त हुआ है। इसलिए इनसे इन पर्यायोमें चारित्र धारण नहीं हो सकता, और चारित्र बिना मोक्ष नहीं होता है। इसलिये इन गतियोंसे वहांसे निकलकर मनुष्य या त्रिर्यंच गतियोंमें आना ही पड़ता है। त्रिर्यंच गतिमें भी एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौ इन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय जीवोंको तो मनके अभावसे सम्यग्दर्शन ही नहीं हो सकता है और बिना सम्यग्दर्शनके सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र भी नहीं होता है। तथा बिना सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रके मोक्ष नहीं होता है। रहे सैनी पंचेन्द्रिय जीव, सो इनको सम्यक्त्व हो जाने पर अप्रत्याख्यानावरण कषायके क्षयोपशम होनेसे एकदेश व्रत हो सकता है, परंतु पूर्ण व्रत नहीं, तब मनुष्य गति ही एक ऐसी गति ठहरी, कि जिसमें यह जीव सम्यक्त्व सहित पूर्ण चारित्रको धारण करके अविनाशी मोक्ष-सुखको प्राप्त कर सकता है। मनुष्योंका निवास मध्यलोक ही में है, इसलिये मनुष्य क्षेत्रका कुछ संक्षिप्त परिचय देकर कथाओंका प्रारंभ करेंगे। ___ लोकाकाशके मध्यमें 1 राजू चौडा और 1 राजू लंबा मध्यलोक हैं, जिसमें त्रस जीवोंका निवास 1 राजू लम्बे और 1 राजू चौडे क्षेत्र ही में है-मध्यलोकका आकारGAROLOD इस राजू मध्यलोकके क्षेत्रमें जम्बूद्वीप और लवण समुद्र आदि असंख्यात द्वीप और समुद्रके चूडीके आकारवत् एक दूसरेको घेरे हुए द्वीपसे दूना समुद्र और समुद्र से दूना द्वीप इस प्रकार पूने 2 विस्तार वाले हैं।

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