Book Title: Jagatkartutva Mimansa
Author(s): Balchandra Maharaj
Publisher: Moolchand Vadilal Akola

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Page 73
________________ "बिचारे कपिल को लथेड़ना आरम्भ किया और यहांतक लथेड़ा कि श्रुतिस्मृतिप्रतिपाद्य सर्वज्ञ कपिलदेव वासुदेवांश रूप में जो अवतीर्ण हुए थेवेऔर ही हैं और यह द्वैतवादी सांख्य शास्त्र का कर्ता कोई अवैदिक कपिल है इत्यादि सभी कुछ कहा।" आगे फिर लिखा है कि"कपिल, कणाद, गौतम, पतञ्जलि, तथा जैमिनि ये पांचो दर्शनकार तो नानात्मवादी होने से अवैदिकही हैं। शेष रहे व्यासदेव सो इनका भी योगसूत्रों के भाष्य में तो नाना चिदात्मवादही सिद्धान्त है इन को भी चाहे आप वैदिक माने या अवैदिक "। आगे फिर लिखा है कि- "अब हमको यहां सन्देह उत्पन्न होता है कि कपिलादि षद् महर्षि अवैदिक हैं या एक भगवत्पाद श्री १०८ शंकरखामीही अ. वैदिक हैं ? परस्पर विरुद्ध लेख है इसलिये दोनों में एक कोटी अवश्य निर्बल होनी चाहिये । 'कौन होनी चाहिये ?' इसको विद्वान लोग स्वयं सोचें। फिर आगे लिखा है कि-"गौतम और कणाद के सिद्धान्त पर जो आपने मिथ्या आक्षेप किया है वह हमको सर्वथा असह्य है।" उसके आगे लिखा है कि-"शंकर स्वामी ने सांख्यादि सर्व दर्शनों से विरुद्ध एक अपनी ढाईपाव जुदाही पाई है "। इत्यादि बहुत कुछ परामर्श किया है । जिसको देखना हो वह न्याय सिद्धान्त मुक्तावली की भूमिका देखले । कईलोक कहते हैं कि 'शंकर स्वामी ने जैन मत का मूल उखाड़ा और वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की, इस पर हमारा यह उत्तर पर्याप्त है कि उपर्युक्त भूमिका के लेखक ने शंकर स्वामी को 'अवैदिक थे' ऐसा स्पष्ट लिखा है फिर उन्हींको वैदिक हम किस आधार से कह सकते हैं, और जब अपने पूर्वज कपिलादि महर्षियों की निन्दा करते जिनको विचार न हुआ तब वे दूसरों को यदि भला बुरा कहें तो इसमें आश्चर्यही क्या ? परन्तु ऐसे कहने से क्या होसकता है। शंकर स्वामी की क्या शक्ति थी कि वे जैन धर्म को मूल से उखाड़ सके हों। जैनदर्शन अविच्छिन्न रूपसे आजतक चला आया है और आजभी जैन दर्शन के अनेक शास्त्र विद्यमान हैं इससे ऐसा कहनेवाले प्रत्यक्ष ही झूठे ठहरते हैं। घर में बैठकर अपने से अपनी रचित

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