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देखते हैं कि जैनियों के समान बौद्ध और हिंदु भी अपने मानना महापुरुषोंकी मूर्तियाँ धौर मन्दिर बनाने, उनकी भक्ति करने में लग़गये । उस समय शुरू में बौद्धोंने भगवान बुद्ध और हिन्दूषोंने भगवान कृष्ण की मूर्तियाँ निर्माण की । पीछे तो इस प्रथाने इतना जोर पकड़ा और मूर्तिकलाने इतनी उन्नति की, कि भारतमें ब्रह्मा, शिव पार्वती, गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती, कृष्णके अतिरिक विष्णुके अन्य अवतारों, वोधिसत्व
अदि प्रोक प्रकार की सौम्य मूर्तियों की एक बाढ़ सी प्रागई । फिर क्या था, जैन, बौद्व और हिन्दु सभी धर्मवालों प्राने अपने महापुरुषों की मूर्तियाँ और मन्दिर बनाकर सारे भरत को ढाँक दिया ।
भगवान महावीर ने अपने जमाने के विभिन्न विचारों मान्यताओं में एकता लाने के लिए जिस प्रोकान्तवाद अथवा स्याद्वाद(Relativity) के सिद्धातों को जन्म दिया था, उसने भारतीय विचारकों में सत्यको अनेक पहलुओं से देखने और जानने के लिए एक विशेष स्फूति पैदा कर दी। इससे भारतको धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त सभी प्रकार का साहित्य सृजन करने में बड़ी प्रगति भिनी। महावीरके उसकोंते तो इस दिशा में खास उत्साह दिखाया। उन्होंने भारत के साहित्य और कलाका कोई क्षेत्र भी ऐसा न छोड़ा जिसमें उन्होंने अपनी स्वतन्त्र रचनायें और टीकायें करके उसे ऊंचा न उठाया हो। इसी लिये हम देखते हैं कि अन्य धर्मों की तरह मैनसाहित्य केवल दार्शनिक. नैतिक और धार्मिक विचारों का भण्डार नहीं है बल्कि वह इतिहास, पुराण कथा, व्याख्यान, स्तोत्र, कव्य नाटक चम्पू छन्द अलंकार, कोष,व्याकरण भूगोल, ज्योतिष, गणित, राजनीति, यन्त्र, मन्त्र, तम्त्र आयुर्वेद, बनस्पतिविद्य, मृापक्षिविद्या, वस्तुकला मूर्तिकला, चित्रकला, शिल्पकला और संगीतकला मादिके अनेक लोकोपयोगी ग्रन्थों से भी भरपूर है। इतिहासज्ञों के लिए जो जैनियों के साहित्यमें इतनी अधिक मोर प्रामाणित सामग्री भरी हुई है कि इसके अध्ययनसे भारतीय इतिहास की अनेक गुत्थियां आसानी से सुलझ सकती है।
न्यायशास्त्र के क्षेत्र में तो जैन विद्वानों की सेवायें भारत लिए