Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३१) अन्नप्पमत्ते धणमेसमाणे, पप्पोति मच्चु पुरिसे जरं च ।। १४ ।। छाया--परिव्रजननिवृत्तकामोऽहनि च रात्रौ परितप्पमाना। अन्नप्रमत्तो धनमेषयन् , प्रामोति मृत्युं पुरुषों जरां च ॥ १४ ॥ अन्वयार्थ-(अन्नप्रमत्त) भोजन की प्राप्ति में आशक्त, (धनम् ) धन को, (एषयन् ) हूंढने के लिये, (परिव्रजन् ) परिभ्रमण करता हुआ, (अहनि दिन, (च और । रात्रौ ) रात्रि भर, (परितप्यमानः) चिन्ता ग्रसित, ( पुरुषः) मनुष्य, (अ. निवृत्तकामः) अतृप्त इच्छा वाला, जरां) अवस्या को प्राप्त हो कर' (च) और, (मृत्यु । मृत्यु को, (प्राप्नोति ) प्राप्त हो नाता है ॥ १४ ॥ भावार्थ-हे पिता श्री ! जो भोगों से दूर नहीं हुआ है वह अतृप्त इच्छावाला मनुष्य विषय वासना और खान पान धन प्रादि इकट्रे करने के लिये रात दिन चिन्ता में पड़ा हुधा इधर उधर भटकना फिरता है यो भटकते २ वृद्धाव. स्थाको प्राप्त होकर आखिर मृत्यु को प्राप्त होजाता है ॥ १४ ॥ मूल-इमं च मे अस्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किञ्च इमं अकिचं । तं एवमेयं लालप्पमाणं, हरा हरंति त्ति कहं पमाए ॥ १५॥ बाया-इदश्च मेऽम्तीदच नास्तीदञ्च मे कृत्यमिदमकृत्यम् । For Private And Personal Use Only

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