Book Title: Haryanvi Jain Kathayen
Author(s): Subhadramuni
Publisher: Mayaram Sambodhi Prakashan

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Page 131
________________ मैं दे माऱ्या । लहुआं की धार चाल पड़ी। दरद के मारे ओ दोहरा हो ग्या । बेहोस हो कै है पड्या । न्यूं देख कै नैं सबकी आंख पाट गी अर सारे खड़े के खड़े रहगे । माड़ी वार पाछै सुलस होंस मैं आया। कूल्हते होए ओ मित्तर-प्यारां तै कहण लाग्या, “थम सारे मेरे पापां मैं हिस्सा बँटाण नै त्यार सो । भोत आच्छी बात । इस टैम तै मेरै इतणा दरद सै के, मेरा जी लिकड़ण नैं हो रह्या सै । थारे मैं तै ईसा कोए हो जो मेरे इस दरद मैं हिस्सा बँटा सकै?” न्यूं सुण के सारे हैरान रहगे। एक-दूसरे का मूं देखण लाग्गे । जाणूं बूझते हों अक दुनिया में कदे कोए किसे के दरद का भी साज्झी बण्या सै! साज्झी बणन नै कोए भी आग्गै कोन्यां आया। सारे बोल-बाले खड़े दरद की मारी लोचते होए सुलस बोल्या, “ईब तै थम मेरे पापां में हिस्सा बंटाण की कहण लाग रे थे, अर ईब मेरे दरद का साज्झी बणन नै कोए त्यार कोन्यां । फेर मैं न्यूं क्यूकर मान ल्यूं अक दुनिया में किसे के पापां नैं कोऐ बँडा सके सै? जो करै सै, ओए भरे सै। भोगणा भी उस्सै नै पड़े सै। मेरे बाप के पापां नैं ओ खा लिया, अर ईब मैं भी ओएं पाप करूं! या बात कोन्यां होवै ।" या बात सुण कै सबके होंट सिम गे । किस्से धोरै उसका कोए जुआब ना था । थोड़े दिनां मैं सुलस ठीक हो गया। भगवान महावीर की बाणी ओ पहल्यां तै भी धणे ध्यान तै सुणन लाग्या । सारी जिन्दगी ओ नेक्की की राही चालता रह्या! 00 हरियाणवी जैन कथायें/108

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