Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 52
________________ भयभीत बनी हुई आत्मा को उपसर्ग प्राप्त होने पर भी कोई भय नहीं होता ॥७॥ स्थैर्यं भवभयादेव, व्यवहारे मुनिव्रजेत् । स्वात्मारामसमाधौ तु, तदप्यन्तर्निमज्जति ॥ ८ ॥ भावार्थ : व्यवहार नय से संसार के भय से ही साधु स्थिर बनता है। परन्तु, अपनी आत्मा की रति रूप समाधि में लीन होने पर वह भय भी अंदर समाप्त हो जाता है ॥८॥ लोक-संज्ञा-त्यागाष्टकम्-23 प्राप्तः षष्ठं गुणस्थानं, भवदुर्गादिलङ्घनम् । लोकसंज्ञारतो न स्यान्मुनिर्लोकोत्तरस्थितिः ॥ १ ॥ भावार्थ : संसाररूप विषम पर्वत को लांघने रूप छठे गुणस्थानक को प्राप्त, लोकोत्तर मार्ग स्थित साधु लोकसंज्ञा में रत अर्थात् प्रीति वाला नहीं होता ॥१॥ यथा चिन्तामणिं दत्ते, बठरो बदरीफलैः । हहा ! जहाति सद्धर्म, तथैव जनरञ्जनैः ॥ २ ॥ भावार्थ : मूर्ख व्यक्ति जिसप्रकार रत्न देकर बदले में बोर लेता है, वैसे ही मूढ व्यक्ति लोकरंजन के लिये सद्धर्म का त्याग कर देता है ॥२॥ लोकसंज्ञामहानद्या, मनुस्रोतोऽनुगा न के ? । प्रतिस्रोतोऽनुगस्त्वेको, राजहंसो महामुनिः ॥ ३ ॥

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