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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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लोकान्तर छ। भावार्थ-लोककी रीतिसो धर्मकी प्रवृति उलटी है। लोककी प्रवृतिले अरु धर्मकी प्रवृत्तिके परस्पर विरुद्ध है। ऐसा जानना और भी आगे जगतकी विटंबना दिखाइये है। कैईकतो बड़ पीपर आंबरी आदि नाना प्रकारके वृक्ष एकेन्द्रि वनस्पति ताकू मनुष्य पंचेन्द्री होय पूजे हैं। अरु पूजवांका फल चाहे सो घनो फल पावसी तो पंचेन्द्री सों एकेन्दी होसी सेो यह जुक्त ही है । जो कोई हजार रुपयाको धनी है कोई वाकी घनी सेवा कर अरु वह घना संप्ट होय तो हजार रुपया दे घाले किछू और बध देवाने समर्थ नाहीं त्यों ही एकेन्द्रीकी पर्यायसों मर एकेन्द्री होसी अरु गाय हाथी घोड़ा बलद याने पूज्या या सारखा होसी सिवाय फल तो किछू मिले नाहीं । घट ही भले मिले, कैई लकड़ीके लत्ता लगाय गाड़े पाछे ईंधन चोर चोर काट छेना भेला करे ताईं माता कह पूजें बहुरि अग्नि कर जलावे महा बुरा गीत गावे माथामें धूल घाल विपरीतरूप नाचे मद खाय मदोन्मत्त होय काम विकाररूप प्रवर्ते माता मोसी बहिन भोजाई सब लान न करें अरु आप नाना प्रकार परकी मार खाय पेशाने धूल पानी कीच कर मारें । अरू गर्धवकी सवारी करें । अरु हर्षित होय काकी भोजाई वा छोटा भाईकी स्त्री इत्यादि परस्त्रीनमें नाना प्रकारकी क्रीड़ा करें। अरु कामचेष्टा कर आकुल व्याकुल होंय महा नर्कादिक पापने उपार्ने अरु आपकू धन्य माने अरु फेर परलोकमें ऐसा पाप कर शुभ फल चाहें ऐसे कहें म्हें होली माताने पूनां छां सो म्हांने आछो फल देसी ऐसी विटम्बना जगतमें आंखा देखिये है। सो ऐसा विचार संसारी जीव करें नाहीं । सो ऐसा महा पाप