Book Title: Gyan aur Karm
Author(s): Rupnarayan Pandey
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 358
________________ ३३४ ज्ञान और कर्म । [ द्वितीय भाग ताको जातिके दोष - गुणका परिचय देनेवाली मानना उचित नहीं है । विश्वनियन्ताका यही नियम है कि एक जातिका अन्य जातिको जीतनेमें समर्थ होना जिस प्रधानताका परिचय देता है, उस प्रधानताका प्रयोग विजितजातिका अहित करनेमें न हो, उसकी उन्नति करनेमें ही उसका व्यवहार किया जाय । अतएव विजेताका विजित जातिके ऊपर घृणाका भाव रखना किसीतरह न्याय संगत नहीं है । साथ ही सद्विवेचना भी उसका समर्थन नहीं - करती । विजेता एक तरफ तो विजितके निकट राजभक्ति पानेका दावा करेगा और चाहेगा कि राजा प्रजाका सम्बन्ध स्थायी हो, और दूसरी तरफ विजितसे घृणा करके उसके मनमें विद्वेषका भाव और फिर स्वाधीनता प्राप्त कर - की दुराशा उद्दीपित करेगा, यह किसी तरह सद्विवेचना या बुद्धिमत्ताका • काम नहीं हो सकता । उधर विजेताके सुशासनसे जो शान्ति या शिक्षा मिलती है, उसके लिए विजेता राजा ( या जाति) के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता दिखाना विजितजा - तिका भी अवश्य कर्तव्य है । कोई कोई कह सकते हैं कि " ये सब बातें धर्मक्षेत्रकी हैं, कर्मक्षेत्र में नहीं हैं। कर्मक्षेत्र में मनुष्यही रहेगा, ऋषि नहीं हो जायगा । और, उपर्युक्त स्थल में विजित और, विजेता के बीच सद्भाव होनेकी संभावना नहीं की जा सकती । " यह सच है कि सभी मनुष्योंके संपूर्ण रूपसे साधु हो जानकी आशा नहीं की जा सकती। कुछ लोग साधु, कुछ लोग असाधु और अधिकांश लोग इन दोनों - श्रेणियोंके बीच में रहेंगे । क्रमशः प्रथम श्रेणीकी संख्या बढ़ेगी दूसरी श्रेणीकी संख्या घटेगी, और तृतीय श्रेणी प्रथम श्रेणीकी और बढ़कर उसीमें मिल जायगी - यही मनुष्यके क्रमविकासका नियम है । आत्मरक्षा के लिए पाशवबल या कौशलकी वृद्धि होना पशुजगत्कें क्रमविकासका नियम है, किन्तु नीतिसम्पन्न मनुष्य के पक्षमें नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति ही क्रमविकासका 1. प्रधान लक्षण है । अतएव यह कहना सभ्य मनुष्यको कलंकित करना है कि दो सभ्य जातियाँ एक समय में विजेता और विजितके रूपमें मिली थीं, इस लिए वे, या कमसे कम उन दोनों जातियोंके अधिकांश लोग, - परस्पर न्यायानुमोदित और सद्विवेचना-संगत व्यवहार नहीं कर सकते । और, पूर्वोक्त कथनका सभ्य शिक्षित समाज में कभी कभी प्रचलित रहना ही

Loading...

Page Navigation
1 ... 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403