Book Title: Gunanuragkulak Author(s): Jinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri Publisher: Raj Rajendra Prakashak Trust View full book textPage 2
________________ 'जैनधर्म' सम्पूर्ण विश्व का अहिंसामूलक मान्य धर्म है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र इसके मूल मन्त्र हैं। इस धर्म के साधु साध्वियाँ विश्ववन्दनीय है। 'जैन धर्म' के तीर्थंकरों की वाणी को शाश्वत जिनवाणी कहा गया है तथा साधु-साध्वियों के श्रीमुख से निकलने वाली वाणी को अमृतमय देवत्व का श्रेय प्राप्त है। इस धर्म के आदितीर्थंकरों एवम् अनुयायियों ने जिन सिद्धान्तों एवम् मान्यताओं का प्रतिपादन किया वे तब से लेकर अब तक समस्त मानवता के अनादिकाल तक पोषक रहे हैं और रहेंगे, ऐसी दृढ़ मान्यता है । संसार चक्र चलता रहता है और मनुष्य-भव करवटें लेता रहता है किन्तु सिद्धान्त दृढ़ रहते हैं। इनमें तनिक भी बदलाव लाना, अपने जीवन को संकट में डाल कर दिशाभ्रमित होना है, ऐसा समझा जाता रहा है। विख्यात जैन पंडित श्री जिनहर्षगणिजी महाराज अत्यन्त विचक्षण बुद्धि एवं जैन सिद्धान्तों के प्रबल प्रणेता संत हुए हैं। उन्होंने समस्त मानवता को श्रेयस्कर जीवन जीने के लिए तथा इस भव और पर भव को उत्तम बनाने हेतु अनेक देवत्व के मार्ग सुझाये थे। उन्हीं सद्मार्गों का अनुसरण करने वाले मनुष्य को 'विनयादिसद्गुण सम्पन्न' एवं गुणानुरागी कहा जा सकता है । ऐसे ही सद्गुणों को एक सूत्र में पिरोकर श्री जिन हर्षगणिजी महाराज ने एक अत्यन्त सारगर्भित ग्रन्थ का निर्माण किया और वही ग्रन्थ 'गुणानुरागकुलक' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । त्रिस्तुतिक संघ के अत्यन्त प्रभावी विद्वद्वर्य आचार्य श्री यतीन्द्रसूरीश्वर जी म. सा. ने इस ग्रन्थ का विद्वत्तापूर्ण विवेचन कर हिन्दी रूपान्तर तैयार किया था जिसका प्रथम संस्करण वि. संवत् १६७४ में प्रकाशित हुआ । तब से लेकर अब तक इस ग्रन्थ की उपादेयता यथावत बनी रही किन्तु दूसरा संस्करण शीघ्र प्रकाशित नहीं हो सका । अब इस ग्रन्थ का यह परिमार्जित, संशोधित एवम् सरल हिन्दी व्याख्या के साथ द्वितीय संस्करण त्रिस्तुतिक संघ के वर्तमान बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य राष्ट्रसंत श्रीमद् जयन्तसेनसूरीश्वर जी म.सा. के प्रकाशनोपदेश से मुमुक्षु पाठकों के लिए नित्य पठन-पाठन एवम् मनन हेतु प्रस्तुत है । आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि अपने जीवन को सफल बनाने के लिए तथा जीवनधारा को सत्कर्मों की ओर मोड़ने के लिए यह ग्रन्थ अमूल्य निधि सिद्ध होगा । -फतहसिंह लोढ़ा, भीलवाड़ाPage Navigation
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