Book Title: Gacchayar Ppayanna
Author(s): Vijayrajendrasuri, Gulabvijay
Publisher: Amichand Taraji Dani
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अहीं वादी प्रश्न करतां पूछे छे के-पुरुयोनी सभामां साध्वी धर्मोपदेश करे तेमां शो दोष ? तेनो जवाब ए छ के-जेम साधने एकली स्त्रीओनी सभामां उपदेश करवाना निषेध छ तेम केवळ पुरुषोनी सभामां साध्वीने उपदेश आपवानो निषेध छे. श्रीउत्तराध्ययनसूत्रमा का छे के-“नो इत्थीणं कहं कहित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहमिति ? आयरियाह-निग्गंथस्स खलु इत्थीणं कहं कहेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पज्जेज्जा, भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं भवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु निग्गंथे नो इत्थीणं कहं कहेज्ज” त्ति. एटले के-स्त्रीओनी कथा कहेतां साधुने ब्रह्मचर्यमां शंका थाय अर्थात् मन चलित थाय, ब्रह्मचर्य, फळ तो क्यारे मळशे? एम वितिगिच्छा थाय, हाल तो विषयसेवन करूं एवी कांक्षा थाय, चारित्रनो भंग थाय, उन्माद प्रगटे, दीर्घकालीन रोगोत्पत्ति थाय, केवलीप्ररूपित धर्मथी भ्रष्ट थवाय माटे साधुए केवल स्त्रीओनी समक्ष धर्मकथा न करवी. आवी जरीते साध्वीए केवळ पुरुषो समक्ष कथा न करवी, तेथी ब्रह्मचर्यना दश स्थानो पैकी बीजा स्थाननो भंग थाय छे. ___ वळी श्रीस्थानांग सूत्रमा पण का छे के- “नो इत्थीणं कहं कहेत्ता हवई" जेवी रीते साधुओ बीजी ब्रह्मचर्यगुप्ति पाळे छे तेम साध्वीए पण पाळवी जोईए तेथी जेम साधुने स्त्रीओने मध्ये कथा करवानुं वर्जन कर्यु तेम स्त्रीने पुरुषोने विषे धर्मकथन करवानुं निषिद्ध छे. जे साध्वी आ आज्ञानुं उल्लंघन करे छे तेने शामननी शत्रुभृत जाणवी.
जे गच्छमां साध्वीओ परस्पर कलह-कंकास के ईर्ष्यादि न करती होय; निंदा-कुथली-गृहस्थकथनी न करती होय; ‘आ मारो मामो, आ मारो भाई, आ मारो पिता, आ मारी माता' इत्यादि गृहस्थोचित भाषा बोलती न होय तेमज गृहस्थ साथे 'आवो, अमुक वस्तु लावजो, आ काम करजो' ए प्रमाणे सावध भाषापूर्वक वातचीत न करती होय तेमज 'तमारा जेवा दानवीर कोण छ ? तमे ज शासनने शोभावनार छो, तमो धर्मात्मा छो' तेवी खुशामतभरी भाषा न बोलती होय ते गच्छ ज श्रेष्ठ गच्छ जाणवो. स्वेच्छाचारी साध्वीनां विशेष कुलक्षणो जणावतां कहे छे के
जो जत्तो वा जाओ, नालोअइ दिवसपक्खिअं वावि। सच्छंदा समणीओ, मयहरिआए न ठायंति ॥११८ ॥ विंटलिआणि पउंजति, गिलाणसेहीण नेव तप्पंति। अणगाढ आगाढं, करंति आगाढि अणगाढं ॥११९ ।। अजयणाए पकुव्वंति, पाहुणगाण अवच्छला। चित्तलयाणि अ सेवंते, चित्ता रयहरणे तहा ।।१२० ।। गइविब्भमाइएहिं आगारविगार तह पगासंति । जह वुड्ढगाण मोहो, समुईरइ किं तु तरुणाणं? ।।१२१ ।। बहुसो उच्छोलिंती, मुहनयणे हत्थपाय कक्खाओ। गिण्हेइ रागमंडल, सोइंदिअ तहय कव्वतु ।।१२२ ।।
श्रीगच्छाचार–पयन्ना- २९२

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