Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ फूलोका गुच्छा। मधुस्रवाके रूप और कुसुम्भपुरके रचनासौन्दर्यसे बड़े बड़े वीरोंका हृदय आकर्षित होता था; परंतु पराक्रमी बलाहककी तरवारके भयसे सबको विमुख होना पड़ता था । राजा आनंदके साथ क्षेमश्रीके काव्यरसका पान किया करते थे । मधुस्रवाका स्मरण करके जिस तरह बलाहककी तरवार भयंकर और तीक्ष्ण हो गई थी, उसी प्रकार मधुलवाका आश्रय पाकर क्षेमश्रीकी कविता भी सकलजनमनोहारिणी और मधुर हो गई थी। शत्रुपर चढ़ाई करनेके लिए जाते समय बलाहक जिस करुण और प्रेमव्याकुल दृष्टिसे मधुस्रवाके निकट बिदा मांगता था, उस दृष्टिसे वह मधुत्रवाके चरणोंपर कितने प्रेमपुष्प और कितने प्रार्थना-पल्लव चढ़ाता था; यह किसीसे छुपा न रहता था। शत्रुपर विजय प्राप्त करनेके . अन्तमें क्षेमश्रीकी कवितासे जो बन्दकमलके चारों ओर घूमते हुए भ्रमरों जैसी हर्ष और शोकसे भीगी हुई गुञ्जन ध्वनि निकलती थी, उससे मधुसवा समझती थी कि ये प्रेम और अव्यक्त व्याकुलताकी उवासें मुझे ही लक्ष्य करके निकल रही हैं। जिस समय बलाहक सेनापति गर्वसे ऊँचा मस्तक किये हुए सभास्थलमें खड़ा होकर कहता था-"महाराज, आपके स्नेहकवचने मेरी बडी रक्षा की, मैं उसके प्रसादसे आज विजयी होकर आपके सन्मुख खड़ा हं।" उस समय क्षेमश्री लज्जासे नीचा सिर कियेहुए कंपितकण्ठसे इस आशयका गीत गाता था-" अजी, मैं तुम्हारे प्रेमका बन्दी हूं।" जिस समय बलाहक शत्रुको राजाके सामने लाकर कहता था कि “ महाराज, मैं इस दुर्जय शत्रुको बाँधकर लाया हूं, कहिए, इसको क्या सजा दी जाय ?" उस समय क्षेमश्री आँखोंमें पानी भरकर करुणापूर्ण कण्ठसे कहता था-" बन्दीके बंधन छोड़ दो, उसे प्रेमके बंधनसे सदाके लिए बाँध लो ।" बलाहक जब किसी शुभकार्यके प्रारंभमें देवदर्शन करनेके समान मधुस्रवाकी लावण्यललित कौमार-शोभाका एकाग्रदृष्टिसे पान करके लक्ष्यवेध करनेमें प्रवृत्त होता था तब क्षेमश्री अपनी पुष्पस्तबकके समान सुन्दर दृष्टिके द्वारा मधुस्रवाकी आरती उतारता था । इधर बलाहक निहार निहारकर हँसता था कि उधर देखते देखते क्षेमश्रीकी आँखोंमें नीर भर आता था। (२) मधुस्रवाके विवाहका समय आ गया । बलाहक उसके पाणि-ग्रहणकी अभिलाषासे बोला, “ महाराज मैं अपने हृदयका रक्त बहाकर चिरकालसे

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112