Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 717
________________ ६७८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ टिप्पणी है-उप्पादवयं गौणं किच्चा जो गहइ केवला सत्ता । भण्णइ सो सुद्धणओ इह सत्तागाहओ समए । नय० गा० १९१ न्यायवाचस्पति पं० हजारीलालका अनुवाद केवल शब्दार्थमात्र नहीं है। प्रत्येक विषयको उन्होंने स्पष्ट किया है। इसके साथ ही पं० फूलचन्द्रजीके टिप्पणोंसे उसमें नवीनता परिलक्षित होने लगी है। उदाहरणके लिए, मन पर्ययज्ञानके सम्बन्धमें पं. हजारीलालने लिखा था-"द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लिए हुए बिना किसीकी सहायताके जो चिंतित, अचिंतित, अर्धचिंतित आदि अनेक भेदरूप दूसरेके मनमें स्थितरूपी' अर्थको स्पष्ट जानता है उसको मन पर्ययज्ञान कहते हैं। यह ज्ञानरूपी पुद्गल द्रव्यकी सम्पूर्ण पर्यायोंको न जानकर कुछ पर्यायोंको जानता है, इसलिए देश कहलाता है । और जितनी पर्यायोंको जानता है, उतनी पर्यायोंको इन्द्रिय व मनकी सहायताके बिना ही स्पष्ट रूपसे प्रत्यक्ष जानता है, इसलिए प्रत्यक्ष कहलाता है।" इस पर पण्डितजीकी टिप्पणी है इसी प्रकारसे नयके प्रकरणमें अनेक पृष्ठोंपर “तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' के उद्धरण देकर टिप्पणी लिखे गये हैं । अनुवादमें भी इतना जोड़ा गया दिखता है-' इस प्रकार कालादिकके भेदसे भी पदार्थमें भेद नहीं माननेसे जो दूषण आते हैं, उनका यहाँपर संक्षेपमें ही उल्लेख किया गया है। जिनको इस विषयमें विशेष जाननेको इच्छा हो वे 'इलोकवार्तिक" को देखें ।" कहीं-कहीं इन टिप्पणोंमें विस्तार के भयसे संक्षेपमें सार प्रकट किया गया है जो साधारण पाठकोंके लिए ही नहीं, विद्वानोंके लिए भी महत्त्वपूर्ण है । उदाहरणके लिए, अनुवादमें एक पंक्ति है--"इसके सिवाय इन सातों ही नयोंमें-से पूर्वपूर्वके नय व्यापक होनेसे कारण रूप तथा प्रतिकूल महाविषय वाले हैं।" इसे स्पष्ट करनेके लिए पण्डितजीने टिप्पणीमें ५-६ पंक्तियाँ लिखकर फिर लिखा है-“सारांश यह है कि सातों नयोंमेंसे नैगमनय केवल कारण रूप है और एवंभूतनय केवल कार्यरूप है। तथा शेष पाँच नय पूर्व-पूर्वके नयोंकी अपेक्षासे कार्यरूप और आगे-आगेके नयोंकी अपेक्षासे कारण रूप हैं।" प्रमेयका लक्षण है-प्रमाणेन स्वपरत्वरूपपरिच्छेद्यं प्रमेयम् । इसका टिप्पणी है-१. "प्रमाणेन स्वपरस्वरूपपरिच्छेदकेन परिच्छयं प्रमेयं", ऐसा पाठ होता तो बहुत अच्छा था । इस प्रकारसे कई पाठ सुझाये गये हैं। टिप्पणियोंमें यथास्थान पाठोंका उल्लेख किया गया है। १. मन पर्ययज्ञानरूपी द्रव्यके सम्बन्धसे संसारी जीवको भी जानता है। . २. "परकीयमनसि व्यवस्थितोऽर्थः मनः तत् पर्येति गच्छति जानातीति मनःपर्ययः" अर्थात् दूसरेके मनमें स्थित अर्थको मन कहते है। और उस मनको जो जानता है उसको मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। ३. पंचाध्यायीकार ने मनःपर्ययज्ञानमें भी मनकी सहायता मान करके मनःपर्ययज्ञान मनकी सहायतासे उत्पन्न होता है, इसलिए देश कहलाता है । और शेष इन्द्रियोंकी सहायतासे उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए प्रत्यक्ष कहलाता है ऐसा माना है। मनःपर्य यज्ञानके अन्य दो भेद हैं-प्रतिपाती, अप्रतिपाती। प्रतिपाती उपशमश्रेणीकी अपेक्षा कहा गया है । अप्रतिपाती मनःपर्ययज्ञान क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा कहा गया है। इसी प्रकार-"किसी-किसीने अतीतवर्तमाल, वर्तमानातीत, अनागतवर्तमान, वर्तमानानागत, अनागतातीत और अतीतानागत इस तरह नैगमनयके छह भेद माने हैं, परन्तु ये सब भेद नैगमनयके भूत, भावि आदि उक्त तीनों भेदोंमें ही भित हो जाते हैं । श्लोकवातिककारने द्रव्यनगम पर्यायनगम आदि रूपसे नैगमनयके ९ भेद माने हैं।" (पृ. ६४ की टिप्पणी) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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