Book Title: Dimond Diary
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: K P Sanghvi Group

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ परमात्मा तुम्हारे भीतर है। मैं तुम्हारे भ्रांति है। परमात्मा की किताब को तुमने गलत ढंग से पढ़ा है; मैं की तरह पढ़ लिया है। और तुम भीतर जाते भी नहीं। वहां असली किताब है। वहां वेदों का वेद, कुरानों की कुरान है। वहां श्रीमद्भगवद्गीता है। वहां भगवान है, वहां तुम जाते ही नहीं; तुम बाहर दौड़ रहे हो-धन कमाओ, पद कमाओ, यह कमाओ, वह कमाओ! और यह सारी कमाई किसलिए, तुम्हें पता है? मैं को सिद्ध करने के लिए। बड़ा राज्य होगा तो बड़ा मैं सिद्ध हो जाएगा। धन का ढेर होगा तो बड़ा मैं सिद्ध हो जाएगा। राष्ट्रपति हो जाऊंगा, प्रधानमंत्री हो जाऊंगा तो मैं सिद्ध हो जाएगा। यह मैं की दौड़ । मैं को सिद्ध करने में लगे हो और मैं कभी सिद्ध होता नहीं, क्योंकि मैं है नहीं। जो है नहीं, वह सिद्ध हो नहीं सकता। तुम दो और दो को पांच बनाने में लगे हो; यह होता नहीं; यह असंभव है। सिकंदर से पूछो। हाथ खाली के खाली रहे। मैं शून्य की तरह जा रहा हूं। क्या कह रहा है सिकंदर ? सिकंदर यह कह रहा है : अहंकार पाया नहीं; शून्य ही था और शून्य ही जा रहा हूं। काश, इस शून्य को स्वीकार कर लिया होता, राजी हो गया होता, अहंकार की दौड़ में समय खराब न किया होता..... तो परमात्मा उतर आता ! जो तू है तो मैं नहीं हूं पैदा, जो मै हूं तो तू नही है जाहिर यहां तो बस बात एक की है, यहां कोई दूसरा नहीं है खुदा के बंदे खुदा को पाते है अपनी हस्ती को खुद मिटा के खुदी की तकमील करके देखें जो कह रहे है खुद नहीं है... ।। 'अहं' भावोदयाभावो बोधस्य परमावधिः || मैं कभी सिद्ध होता नहीं, क्योंकि 'मैं' है नहीं For Private & Personal Use Only 18 Jain Education International He मेजर www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100