Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानलक्षणम्
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एकाग्र चिन्ता निरोधस्वरूप इस ध्यान के लक्षण को स्पष्ट करते हुए प्राचार्य प्रकलंक देव के द्वारा कहा गया है कि 'अग्र' का निरुक्तार्थ मुख अथवा अर्थ (पदार्थ) है, तथा पदार्थों के विषय में जो प्रन्तःकरण का व्यापार होता है उसका नाम चिन्ता है । इसका अभिप्राय यह है कि गमन, भोजन, शयन एवं अध्ययन आदि अनेक क्रियाओं में अनियमितता से प्रवर्तमान मन को जो किसी एक क्रिया के कर्तारूप से अवस्थित किया जाता है, इसे एकाग्रचिन्तानिरोध कहा जाता है। फलितार्थ यह है कि एक द्रव्य परमाणु अथवा भाव परमाणु रूप अर्थ में जो चिन्ता को नियंत्रित किया जाता है, इसे ध्यान समझना चाहिए । जिस प्रकार वायु के अभाव में निर्बाधरूप से जलने वाली दीपक की लौ चंचलता से रहित (स्थिर ) होती है उसी प्रकार प्रात्मा के वीर्यविशेष से विभिन्न पदार्थों की ओर से रोकी जाने वाली चिन्ता चंचलता से रहित होती हुई एकाग्रस्वरूप से स्थित होती है' ।
लगभग यही अभिप्राय तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के रचयिता प्राचार्य विद्यानन्द का भी रहा है ।
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तत्वार्थाधिगम-भाष्यानुसारिणी टीकानों के कर्ता हरिभद्र सूरि और सिद्धसेन गणि अपनी-अपनी टीका में समान रूप से 'अन' का अर्थ श्रालम्बन और 'चिन्ता' का अर्थ चंचल चित्त करते हैं। उक्त चंचल चिस के अन्यत्र होने वाले संचार को रोककर उसे एक के प्राश्रित अवस्थित करना, यह निरोध का अभिप्राय है। तात्पर्य यह है कि एक वस्तु का श्राश्रय लेने वाला जो स्थिर प्रध्यवसान है उसका नाम ध्यान है । इस प्रकार का वह ध्यान छद्मस्थों के ही होता है, केवलियों के नहीं । केवलियों का ध्यान वचन और काय योगों के निरोधस्वरूप है । कारण यह कि उनके चित्त का प्रभाव हो चुका है' ।
यही अभिप्राय ध्यानशतक में भी प्रगट किया गया है ।
प्रकृत श्लोक में भास्करनन्दी ने जो अनेक अर्थों का श्रालम्बन लेने वाली चिन्ता के एक अर्थ में नियंत्रित करने को ध्यान कहा है वह उक्त तत्त्वार्थवार्तिक आदि का अनुसरण करने वाला है। यहां भास्करनन्दी ने यह भी कहा है कि वह ध्यान जड़ता प्रथवा तुच्छता रूप नहीं है । इसका कुछ स्पष्टीकरण हमें तस्वार्थश्लोकवार्तिक में उपलब्ध होता है। वहां शंका के रूप में यह कहा गया है कि ध्यान (योग) का स्वरूप तो चित्तवृत्ति का निरोध है, न कि एकाग्रचिन्ता निरोध ? इस शंका के ऊपर प्रतिशंका उपस्थित करते हुए पूछा गया है कि चित्तवृत्तिनिरोध से क्या प्रापको समस्त चित्तवृत्तियों के निरोधरूप तुच्छ प्रभाव प्रभीष्ट है अथवा वह (चित्तवृत्ति का निरोध) स्थिर ज्ञानस्वरूप प्रभीष्ट है ? इनमें समस्त चित्तवृत्तियों के निरोधस्वरूप तुच्छ प्रभाव को यदि ध्यान माना जाता है तो वह प्रमाणसंगत नहीं है । परन्तु इसके विपरीत यदि उस चित्तवृत्तिनिरोध को स्थिर ज्ञानस्वरूप स्वीकार किया जाता है तो वह हमें अभीष्ट है ।
इस प्रकार प्रकृत में जो तुच्छतारूप ध्यान का निषेध किया गया है उसका आधार निश्चित ही तत्वार्थश्लोकवार्तिक का उक्त प्रसंग रहा है, ऐसा प्रतीत होता है । इसके अतिरिक्त जड़तास्वरूप ध्यान का जो निषेध किया गया है वह प्रायः सांख्य मत के अभिप्राय को अनुसार प्रकृति (प्रधान) और पुरुष ये दो तत्त्व प्रमुख हैं। माना गया । इसका कारण यह रहा है कि ज्ञान अनित्य है, ज्ञान से अभिन्न मानने पर उसके जो
लेकर किया गया है। सांख्य मत के इनमें पुरुष को स्वभावतः ज्ञान से रहित और तब वैसी अवस्था में पुरुष को उस अनित्यता का प्रसंग प्राप्त होगा वह दुर्निवार होगा। इस प्रकार
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त. वा. ६, २७, ३-७, पृ. ६२५.
त. श्लो. ६, २७, ५-६, पृ. ४६८-६६.
त. भा. हरि. व सिद्ध, वृत्ति ६-२७. ध्यानशतक २-३.
त. इलो. 8, २७, १-२ ( यहां पाठ कुछ त्रुटित हो गया दिखता है) ।