Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 402
________________ धन्य-चरित्र/394 अर्थात् जिनके दर्शन की प्रतिमूर्ति सदा धर्म ही रही है, अगर कदाचित् उसी धर्म का त्याग करता है, तो उस मन्दिर की ध्वजा का क्या? यद्यपि ऐसा है, फिर भी मोक्ष बिना अक्षय सुख नहीं मिलता।" यह विचार करके गुरु से कहा-"प्रभु! अपार भव रूपी संसार से तिरने के लिए मुझे चारित्र रूपी यान प्रदान करें।आपकी कृपासे ही मेरा कार्य सिद्ध होगा। अतः मैं घर जाकर जन-व्यवहार की अनुवृत्ति द्वारा राज्य–चिंता करके आजन्म आपके चरणों की उपासना करने के लिए आ जाऊँगा। तब आप मुझ पर कृपा करके चारित्र रत्न प्रदान करना। गुरु ने कहा-"जैसे आत्मा का हित हो, वैसा करो। पर प्रमाद मत करो।" राजा ने कहा-"जैसी आपकी आज्ञा ।" तब राजा ने गुरु को नमन करके घर आकर, भोजन करके आस्थान-मण्डप में आकर मंत्रियों को बुलाकर कहा-'हे मन्त्रियों! राज्य किसको देना चाहिए?" उन्होंने कहा-"जगत में विधि की गति विपरीत है। क्योंकि-- शशिनि खलु कलङक कण्टकः पद्मनाले, जलधिजलमपेय पण्डिते निर्धनत्वम् । दयितजनवियोगो दुर्भगत्वं सुरूपे, धनवति कृपणत्वं रत्नदोषी कृतान्तः ।।२।। चन्द्रमा में कलंक है, पद्मनाल में काँटे हैं, समुद्र का जल पीने योग्य नहीं, पण्डित निर्धन होता है, स्त्रियों का वियोग होता है, रूपवान दुर्भाग्यशाली होता है, धनवान में कृपणता होती है, यमराज रत्नदोषी होता है। जो भी उत्तम पदार्थ हैं, वे सभी एक-एक दोष से दूषित होते हैं, क्योंकि शुद्ध न्याय के प्रवर्तक, स्वर्ण देकर समस्त लोगों के ऋण का उच्छेद करके, संवत्सर के प्रवर्तक श्रीमद् जिनेन्द्र-भाषित, धर्म में रत, परोपकार करने में एकमात्र अग्रणी आपके पुत्र ही नहीं हुआ और जिस किसी अनिपुण को राज्यदान युक्त नहीं है। अतः अभी तो आप ही राज्य को अलंकृत कीजिए, जब तक कि राज्य के योग्य पुरुष का संयोग न हो । न्याय में एकनिष्ठ, दुष्कर्मों से विमुख आप जैसों के द्वारा राज्य-पालन भी महान पुण्य का कार्य है, क्योंकि राजा पवित्र-धर्म से युक्त होता है-यह श्रुति में भी कहा है। गृहस्थों के रूप में ही अनेक तरह से विविध प्रकार के दान, दयादि धर्म-कर्म की उपासना करके संसार का अन्त किया जाता हुआ सुना जाता है, पर अयोग्य को राज्य देकर संयम लिया हो, ऐसा नहीं सुना जाता। पूर्व में भी गृहस्थावस्था में ही जिनाज्ञा का पालन करते हुए जीवन्मुक्ति के बिरुद को प्राप्त किया। आगमों में भी गृहस्थ-लिंग सिद्धा अनंत संख्या में सुने जाते हैं। अतः जब तक आपके अन्तराय का उदय है, तब तक आप स्वयं ही राज्य करें। जगत में परोपकार करने के समान अन्य कोई धर्म नहीं है।"

Loading...

Page Navigation
1 ... 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440