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सन्धान- कवि धनञ्जय की काव्य- चेतना
हैं । धनञ्जय ने द्विसन्धान-महाकाव्य का उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति न रखकर, अर्थ- प्राप्ति रखा है, जो परम्परा से थोड़ा हटकर है । सम्भवतः यही कारण है कि कवि अपने महाकाव्य में शान्त रस के अंकन के लिये बहुत कम अवसर जुटा पाया है । द्विसन्धान के जिन अंशों में शान्त रस चित्रांकित हो पाया है, वे भौतिक वस्तुओं की क्षण-भङ्गुरता तथा भौतिक-सुखों की असारता के प्रसंग हैं । चतुर्थ सर्ग में कवि ने वर्णन किया है कि किस प्रकार दशरथ / पाण्डु वृद्धावस्था में अपनी छवि को दर्पण देखकर वैराग्य को प्राप्त हो जाते हैं। उन्हें आश्चर्य होता है कि सभी प्राणी वृद्ध होते हैं और फिर देह त्याग देते हैं । एक बार बीता हुआ यौवन कभी वापिस नहीं आता और ओस की बूंद के समान सभी भौतिक वस्तुएं क्षणभङ्गुर हैं । सभी सम्बन्धी भी सूखे पत्तों के समान एक झोंके में ही बिछुड़ जाने वाले हैं
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क्षणभङ्गरमङ्गमङ्गिनां न गता यौवनिका निवर्तते । विभवास्तृडवारिचञ्चला निचया मर्मरपत्रसन्निभाः ॥ १
प्रस्तुत उद्धरण में राजा दशरथ / पाण्डु द्वारा दर्पण में दृष्ट वृद्धावस्था से हृदय में उत्पन्न वैराग्य का वर्णन है । अत: दशरथ / पाण्डु आश्रय है । भौतिक वस्तुओं की क्षणभङ्गुरता आलम्बन है। बीता हुआ यौवन, ओस की बूंद उद्दीपन हैं । निर्वेद संचारी भाव है । इन सबके माध्यम से 'शम' स्थायी भाव शान्त रस की पुष्टि कर रहा है
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कवि धनञ्जय एक अन्य स्थल पर समस्त भौतिक सुखों की असारता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि प्राणियों के भोग, लक्ष्मी और आयु- सभी वस्तुएं अस्थिर हैं । वह इन सब की अन्य वस्तुओं से तुलना करते हुए कहते हैं कि प्राणियों के प्रिय भोग गरजते हुए बादलों के समान चंचल हैं, लक्ष्मी हाथी के हिलते हुए सिर के समान है तथा आयु गायकों के मधुर गले की नलियों के समान चल तथा अचल है । इस प्रकार कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है—
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तथाहि भोगाः स्तनयित्नुसन्निभाः गजाननाधूननचञ्चलाः श्रियः । निनादिनादिन्धमकण्ठनाडिवच्चलाचलं न स्थिरमायुरङ्गिनाम् ॥२
१. द्विस, ४.६
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वही, ६.४५