Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 56
________________ धम्मकहा 8855 (१९) वृषभसेन की कथा जनपद देश की कावेरी नाम के नगर में राजा उग्रसेन रहते थे। वहाँ एक धनपति सेठ धनश्री स्त्री के साथ निवास करता था। उसके पुत्री वृषभसेना थी। वृषभसेना की रूपवती नाम की धाय देखती है कि वृषभसेना के स्नान के जल में नहाकर गड़े से निकलकर के एक कुत्ता जो रोगी था वह निरोग हो गया। धाय विचार करती है कि कुत्ते की निरोगता का कारण पुत्री के स्नान का जल ही है। धाय अपनी माता से सब समाचार कह देती है। उसकी माता बारह वर्ष से नेत्र रोग से पीड़ित थी। एक दिन परीक्षा करने के लिए माता ने अपने नेत्रों को उसके जल से धोया। नेत्र को धोने के समय ही वह नेत्र की पीड़ा चल गई। इस घटना से धाय सर्व रोग को दूर करके में समर्थ है, इस प्रकार उसकी प्रसिद्ध हो गई। एक समय उग्रसेन राजा का मंत्री युद्ध के कारण से परदेश में गया। वहाँ विष मिश्रित जल के पान से उसे ज्वर आ गया। जब वह अपने देश में आया तब धाय ने जल सिंचन से उसको निरोग कर दिया। राजा उग्रसेन भी उस देश में गया, वह भी ज्वर से पीड़ित होकर के लौटकर आया। रणपिंगल मंत्री से जल का वृतांत सुनकर राजा भी जल की याचना करने लगा। धाय ने राजा को भी निरोग कर दिया। निरोगी राजा धाय को जल के विषय में पूछता है, धाय सब कुछ सच बता देती है। राजा धनपती सेठ को बुलाता है। सेठ डरकर के आता है। राजा उस सेठ को सम्मानित करके वृषभसेन के विवाह के लिए याचना करता है। सेठ निवेदन करता है राजन्! यदि अष्टाह्निका के दिनों में आप जिनबिम्बों की पूजा करें और पिंजरे में स्थित सभी पक्षी और पशु के समूह को छोड़ दें। बन्दीगृह के स्थित मनुष्यों को बंधन से मुक्त कर दें तो मैं अपनी पुत्री का विवाह आपके साथ कर दूंगा। राजा सब स्वीकार कर लेता है। वृषभसेना उसके साथ विवाहिता कर दी गई और पट्टरानी के पद से वह प्रतिष्ठित हुई। राजा सब कार्यों को छोड़कर के प्रिय वृषभसेना के साथ रतिक्रिया के संलग्न हो गया। इसी अवसर पर वाराणसी नगरी का पृथ्वीचंद्र नाम का राजा उसके बन्दीगृह में बंधा हुआ था। अत्यंत बलवान वह राजा है, इस प्रकार से मानकर के वह विवाह काल में भी छोड़ा नहीं गया। पृथ्वीचंद्र की नारायणदत्ता नाम की रानी मंत्रियों के साथ मंत्रणा करती है। पृथ्वीचंद्र को छुड़ाने के लिए वाराणसी नगरी में सर्वत्र वृषभसेना रानी के नाम से भोजन गृह निर्मापित किए गए। जिसमें किसी के लिए भी प्रवेश करने का निषेध नहीं था। उन भोजनगृहों में भोजन करके जो ब्राह्मण कावेरी पत्तन गए थे उनसे उस वृत्तान्त को सुनकर के रुष्ट हुई रूपवती धाय ने वृषभसेना से पूछा कि मुझसे पूछे बिना तुम भोजनगृहों का निर्माण क्यों करा रही हो? वृषभसेना उस सर्व वृत्तान्त को राजा से कहकर के पृथ्वीचंद्र राजा को बंधन से छुड़वा देती है। पृथ्वीचंद्र ने एक चित्रपट्ट के ऊपर वृषभसेना के साथ उग्रसेन के चित्र को बनाकर के और नीचे प्रणाम करते हुए अपना चित्र बना लिया। उस चित्रपट्ट को उन दोनों के लिए दिखाया गया। उसने वृषभसेना रानी से कहा- कि हे देवी! तुम मेरी माता हो, तुम्हारे प्रासाद से मेरा जन्म सफल हुआ है। उग्रसेन राजा ने सम्मान करके कहा कि तुम्हें मेघपिंगल के समीप जाना चाहिए। ऐसा कहकर के उन दोनों ने उसे

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