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इस प्रकार इन नामों से धातु तथा धातु से भूतकृदन्त आदि क्रियावाचक शब्द बनाये जा सकते हैं। सर्वत्र क्रियावाची शब्दों में यह नियम लागू किया जा सकता है ।। उदाहरण के लिए कुछ अन्य शब्दों को लिया जा सकता है --- अविय (कथित), अट्ट (गत), अज्झत्थ (आगत)-यद्यपि ये तीनों शब्द क्रियावाचक भूतकृदन्त के रूप में हैं, तथापि त्यादि के रूप में इनका प्रयोग ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं हुआ इसलिए धात्वादेश में हेमचन्द्राचार्य ने इन्हें निबद्ध
नहीं किया।
अवरुंडिय शब्द आलिंगन अर्थ में देशी है। इसके मूल में धातु है-- अवरुंड । अवरुंडइ, अवरुंडिज्जइ, अवरुंडिऊण इत्यादि क्रियापदों का प्रयोग मिलने पर भी आचार्य हेमचन्द्र ने इसे धात्वादेश प्रकरण में समाविष्ट नहीं किया, क्योंकि उनके पूर्ववर्ती आचार्यों ने भी इसे धात्वादेश में स्थान नहीं दिया।
आचार्य हेमचन्द्र अपना तर्क प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि अज्झस्सइ, अज्झसियं इत्यादि प्रयोगों के आधार पर अज्झस्स शब्द को धात्वादेश में ग्रहण करना चाहिए था। प्राचीन देशीसंग्रहकारों का अनुसरण करते हुए हमने इसे धात्वादेश में न लेकर अज्झस्स (आक्रुष्ट) शब्द के रूप में देशीसंग्रह में संगृहीत किया है।
__ इन शब्दों एवं धातुओं को आधार मानकर इस कोश में हमने कुछ ऐसी धातुओं का ग्रहण किया है जो अन्य शब्दकोशों में नहीं हैं । जैसे
आलंक --लंगड़ा करना, पंगु करना । आसगल-आक्रांत करना, प्राप्त करना । असर----सम्मुख आना । इंघ - सूंघना। इग्घ ----तिरस्कृत करना । इल्ल-आसिक्त करना, सींचना ।
इन धातुओं का निर्माण संग्रहण सर्वथा मनगढंत या निराधार नहीं है। हेमचन्द्राचार्य के निम्नांकित संदर्भो को इनकी आधारशिला कहा जा सकता है। 'उग्गहिय' शब्द का अर्थ है रचित, जो 'रचि' धात्वादेश से ही सिद्ध है। अर्थात् रच् धातु को 'उग्गह' आदेश हुआ है। उस उग्गह धातु से ही 'उग्गहिय' शब्द रचित अर्थ में निष्पन्न हुआ है।"
१. देशी नाममाला, ११६६ वृत्ति । २. वही, १११० वृत्ति । ३. वही, ११११ वृत्ति । ४. वही, १११३ वृत्ति। ५. प्राकृत व्याकरण, ४।६४; देशीनाममाला, १११०४ वृत्ति ।
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