Book Title: Dashvaikalik Tatha Uttaradhyayan
Author(s): Harshchandra Maharaj
Publisher: Atmaram Mohanlal Sheth
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१२६]
[श्रीउत्तराध्ययनसूत्र
म्वणाई खवेइ । निरालम्बस्स य प्राययट्टिया योगा भवन्ति । सपणं लाभेणं संतुस्सइ, परलाभ नो प्रासादेइ, परलाभ नो तकेह, नो पीहेइ, नो पत्थेइ, नो अभिलसइ । परलाभ अणासाएमाणे अतकेमाणे अपीहमाणे अपत्थेमाणे अणभिलसमाणे दुचं सुहसे जं उपसंपजित्ता रंग विहरइ ॥ ३३ ।।
उवहिपञ्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? उ० अपलिमन्थं जणयइ । निरुवहिए णं जीवे निकंखी उवहिमन्तरेण य न संकिलिस्सइ ॥ ३४ ॥
आहारपञ्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? आहार जीवियासंसप्पओगं वोच्छिन्दइ । जीवियासंसप्पोगं वोच्छिन्दित्ता जीवे आहारमन्तरेणं न संकिलिस्सइ ।। ३५ ।।
कसायपञ्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? क० वीयरागभावं जणयइ वीयरागभावपडिवन्ने वि य णं जीवे समसुदुक्खे भवइ ।। ३६ ।।
जोगपञ्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? जो० अजोगत्तं जणयह । अजोगी णं जीवे नवं कम्मं न बन्धइ, पुवबद्ध निजरेइ ॥ ३७ ॥
सरीरपञ्चक्खाणेणे भले ! जीवे किं जणयइ ? स० सिद्धाइसयगुणकित्तणं निव्वत्तेइ । सिद्धाइसयगुणसंपन्ने य णं जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही भवइ ।। ३८ ॥
सहायपञ्चक्खाणेण भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? स० एगीभावं जणयह । एगीभावभूए यण जीवे एगत्तं भावेमाणे अप्प

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