Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 135
________________ क्या मेरे द्वारा हो रही क्रिया की स्खलना को स्वपक्षी (साधु) पर पक्षी (गृहस्थादि) देखते हैं? या चारित्र की स्खलना को मैं स्वयं देखता हूँ ? (मेरी भलू को मैं देखता हूँ) चारित्र की स्खलना को मैं देखते हुए, जानते हुए भी स्खलना का त्याग क्यों नहीं करता? इस प्रकार जो साधु भलीभांति विचार करता है तो वह साधुभावी काल में असंयम प्रवृत्ति नहीं करेगा । जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, तत्थेव धीरो पडिसा हरिज्जा, कारण वाया अदु आइन्नओ खिप्पमिव जब-जब जहां कहीं भी मन-वचन-काया की दुष्प्रवृत्ति दिखाई दे, वहीं धीर बुद्धिमान् साधु संभल जाय, जागृत बन जाय, भूल को सुधार ले। उस पर दृष्टांत कहते हैं कि जैसे जातिमान् अश्व लगाम को खिंची जानकर, नियमित गति में आ जाता है। सम्भल जाता है । साधु दुष्प्रवृत्ति का त्याग कर, सम्यग् आचार को स्वीकार करें । १४ । "प्रतिबुद्ध जीवी" जस्सेरिसा जोग जिइंदिअस्स, घिईमओ सप्पुरिसस्स निच्चं । तमाहु लोए पडिबुद्ध जीवी, सो जीअई संजम - जीविएणं ॥ १५ ॥ अप्पा खलु सययं अरक्खिओ जाइपहं माणसेणं । खलीणं । १४ । जितेन्द्रिय, संयम में धीर सत्पुरुष ऐसे साधुओं के स्वहित चिंतन की, देखने की प्रवृत्ति युक्त मन, वचन, काया के योग निरंतर प्रवृत्तमान है। ऐसे मुनि भगवंतों को “लोक में “प्रतिबुद्ध जीवी” कहा जाता है। ऐसे गुण युक्त साधु विचारवंत होने से संयम प्रधान जीवन जीते है । १५ ॥ " अंतिम अणमोल उपदेश" रक्खि अव्वो, उवेइ, सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं । सुरक्खिओ सूत्रकार श्री कह रहे हैं कि सभी इंद्रियों के विषय व्यापारों से निवृत्त होकर परलोक के अनिष्टकारी कष्टों से निरंतर स्वात्मा का रक्षण करना चाहिये। जो तुम इन्द्रियों के विषय व्यापारों से आत्मा की सुरक्षा नहीं करोगे तो भवोभव (जातिपथ) संसार में परिभ्रमण करना पड़ेगा। जो अप्रमत्तत्ता • पूर्वक आत्मा का रक्षण करोगे तो शारीरिक मानसिक सभी दुःखों से दुःख मात्र से मुक्त हो जाओगे । यह उपदेश तीर्थंकरादि के कथनानुसार सूत्रकार श्री कहते हैं। श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १३२ सव्वदुहाण मुच्चई ।

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