Book Title: Dash Vaikalika Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 296
________________ 284] [दशवैकालिक सूत्र भाव से यह समझ कर सह लेता है कि मेरे किये कर्म मुझे ही भोगने पड़ेंगे, जब खुशी से मैंने वे सब कर्म किये हैं, तब उनका फल भोगते समय खेद क्यों, कायरता क्यों ? वही साधु है । पडिमं पडिवज्जिया मसाणे, णो भीयए भय - भेरवाई दिस्स । विविह गुण तवोर य निच्चं, न सरीरं चाभिकंखए जे स भिक्खू ।।12।। हिन्दी पद्यानुवाद अभिग्रह धर पर श्मशान वास, भैरव-भय देख नहीं डरता । हो नित्य विविध गुण तपोनिष्ठ, देह ममता त्याग भिक्षु बनता ।। अन्वयार्थ-जे = जो। मसाणे = श्मशान भूमि में । पडिमं अभिग्रह । पडिवज्जिया (पडिवज्जिआ) = ग्रहण करके । भय-भेरवाई = भैरव के अत्यन्त भयानक दृश्यों को । दिस्स = देखकर भी । णो भीयए = नहीं डरता । निच्चं = सदा । विविह गुण = विविध गुण । य तवोरए = और तपस्या में रत रहकर । च = और। सरीरं = शरीर की भी । न अभिकंखए (न अभिकखइ) = आकांक्षा नहीं करता । स = वह । भिक्खू = भिक्षु है । = भावार्थ-भय पर विजय प्राप्त करने के लिये साधु जंगल और श्मशान में भी कायोत्सर्ग-प्रतिमा का अभ्यास करता है । वहाँ पर भयानक बेताल आदि के दृश्य देखकर साधु भयभीत नहीं होता । मशानी बाबा की तरह केवल निर्भय ही नहीं रहता, अपितु धीरता, वीरता, सहिष्णुता आदि गुणों और तपस्या में रत रहकर जो शरीर की भी ममता नहीं करता, उपसर्गों से बचने की भावना नहीं रखता, बल्कि उनको शान्तभाव से सहन करता है, वही भिक्षु है । असई वोसट्ठचत्तदेहे, अक्कुट्ठे व हए लूसिए वा । पुढविसमे मुणी हविज्जा, अनियाणे अकोउहल्ले जे स भिक्खू ।।13।। हिन्दी पद्यानुवाद बहुराग-द्वेष - मंडन गत-तन, सह गाली मार नख का भेदन | पृथ्वी सम जो है निर्निदान, कौतुक - वर्जित को भिक्षु कथन ।। अन्वयार्थ - जे = जो साधु । असई = बार-बार । वोसट्टचत्तदेहे = शरीर की विभूषा सार-संभाल छोड़ता, ममता नहीं करता है। व= और। अक्कुट्ठे = गाली देने। व = अथवा | हए = मारने-पीटने । वा लूसिए = अथवा शस्त्र से छेदन - भेदन करने पर । मुणी = मुनि | पुढविसमे = पृथ्वी के समान सहिष्णु । हविज्जा (हवेज्जा) = होता है । अनियाणे ( अनिआणे ) = निदान नहीं करता है। अकोउहल्ले = कौतुहल रहित होता है । स = वह । भिक्खू = भिक्षु है ।

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