Book Title: Dakshina Path Ki Sadhna Yatra
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 13
________________ संदेश को वर्तमान मानव तक पहुँचाने के लिये उत्सुक खडी दिखाई देती हैं ......। उसके अणु-रेणु से उठने वाले परमाणु इस संदेश को ध्वनित करते हैं। पूर्वकाल में अनेक साधकों की साधना भूमि बनने के बाद, इस सन्देश के द्वारा नूतन साधकों की प्रतीक्षा करती हुई पर्याप्त समय तक निर्जन रही हुई एवं अंतिम समय में तो दुर्जनावास भी बन चुकी इन गुफाओं-गिरि-कन्दराओं के बुलावों को आखिर एक परम अवधूत ने सुने . . . . . । बीस वर्ष की युवावस्था में सर्वसंग परित्याग कर जैन मुनि-दीक्षा ग्रहण किये हुये, बारह वर्ष तक गुरुकुल में रह कर ज्ञान-दर्शन-चरित्र की साधना का निर्वहन किये हुए एवं तत्पश्चात् एकांतवासी-गुफावासी बने हुए ये अवधूत अनेक प्रदेशों के वनोपवनों में विचरण करते हुए, गुफाओं में बसते हुए, अनेक धर्म के त्यागी-तपस्वियों का सत्संग करते हुए विविध स्थानों में आत्मसाधना कर रहे थे। अपनी साधना के इस उपक्रम में अनेक अनुभवों के बाद उन्होंने अपने उपास्य पद पर निष्कारण करुणाशील ऐसे वीतराग पथ-प्रदर्शक श्रीमद् राजचंद्रजी को स्थापित किया। मूलत: कच्छ के, पूर्वाश्रम में 'मूलजी भाई' के नाम से एवं श्वेताम्बर जैन साधु-रूप के दीक्षा-पर्याय में भद्र-मुनि' के नाम से पहचाने गये एवं एकांतवास तथा दिगम्बर जैन क्षुल्लकत्व के स्वीकार के पश्चात् 'सहजानंद घन' के नाम से प्रसिद्ध यह अवधूत अपने पूर्व-संस्कार से, दूर दूर से आ रहै इन गुफाओं के

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