Book Title: Chobisi Puran
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Dulichand Parivar

View full book text
Previous | Next

Page 393
________________ * चौबीस तीथक्कर पुराण * २२३ में ही मर गये हैं। अब मैं असहाय होकर उन्हींके लिये रो रही हूँ। बुढ़ियाके वचन सुनकर काल यवन हर्षित होता हुआ वापिस लौट गया। अब आगे चलिये-जब राजा समुद्र विजय आदि समुद्रके किनारेपर पहुंचे थे तब वहां रहनेके लिये कोई मकान वगैरह नहीं था इसलिये वे सब आवासो- घरोंकी चिन्तामें यहां वहां घूम रहे थे। वहींपर बुद्धिमान श्रीकृष्णने आठ दिनके उपवास किये और डाभके आसनपर बैठकर परमात्माका ध्यान किया। श्रीकृष्णकी आराधनासे प्रसन्न हुए एक नैगम नामके देवने प्रकट होकर कहा कि अभी तुम्हारे पास एक सुन्दर घोड़ा आवेगा तुम उसपर सवार होकर समुद्र में बारह योजन तक चले जाना । वहांपर तुम्हारे लिये एक मनोहर नगर बन जायेगा। इतना कहकर वह देव तो अदृश्य हो गया पर उसकी जगहपर कहींसे आकर एक सुन्दर घोड़ा खड़ा हो गया। श्रीकृष्ण उसपर सवार होकर समुद्रमें बारह योजन तक दौड़ते गये । पुण्य प्रतापसे समुद्रका उतना भाग स्थलमय हो गया वहींपर इन्द्रकी आज्ञा पाकर कुबेर देवने एक महा मनोहर नगरीकी रचना कर दी। उसके बड़े बड़े गोपुर देखकर समुद्र विजय आदिने उसका नाम द्वारावती द्वारिका रख लिया। राजा समुद्र विजय अपने छोटे भाइयों तथा श्रीकृष्ण आदि पुत्रोंके साथ द्वारिकामें सुखपूर्वक रहने लगे। भगवान् नेमिनाथके पूर्व भवोंका वर्णन करते हुए ऊपर जिस अहमिन्द्रका कथन कर आये हैं। उसकी जब वहाँकी आयु सिर्फ छह माहकी बाकी रह गई तभीसे द्वारकापुरीमें राजा समुद्र विजय और महारानी शिवा देवीके घरपर देवोंने रत्नोंकी वर्षा करनी शुरू कर दी । इन्द्रकी आज्ञा पाकर अनेक देव कुमारियां आ-आकर शिवा देवीको सेवा करने लगी। इन सब बातोंसे अपने घरमें तीर्थकरकी उत्पत्तिका निश्चय कर समस्त हरिवंशी हर्षसे फूले न समाते थे। ____ कार्तिक शुक्ला षष्ठीके दिन उतराषाढ़ नक्षत्र में रात्रिके पिछले पहर रानी शिवा देवीने सोलह स्वप्न देखे। उसी समय उक्त अहमिन्द्रने जयन्त विमान से च्युत होकर उसके गर्भ में प्रवेश किया। सवेरा होते ही रानीने पतिदेवसे स्वप्नोंका फल पूछा तय उन्होंने कहा कि आज तुम्हारे गर्भमें किसी तीर्थकरके जीवने प्रवेश किया है । नौ माह बाद तुम्हारे गर्भसे एक महा यशस्वी तीर्थ

Loading...

Page Navigation
1 ... 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435