Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 62
________________ . ज्ञानस्वभाव-सम्यग्ज्ञान 61 में भी दर्पण तो ज्यों का त्यों विद्यमान है, यह दृष्टि और प्रतीति निराकुलता को जन्म देती है। अज्ञानी मानता है 'मुझे धन मिला', किन्तु वस्तुत: अज्ञानी के.. ज्ञान को भी धन का एक आकार मात्र मिला है, धन तो मिला नहीं है। अज्ञानी धन मिलने की कल्पना से ही हर्षित होता रहता है। इसी प्रकार अग्नि के संयोग में अज्ञानी मानता है मैं जल रहा हूँ, किन्तु वस्तुत: अग्निज्वाला ज्ञान में प्रतिबिम्बित मात्र हो रही है, ज्ञान तो जल नहीं रहा है। यदि अग्नि से ज्ञान जलने लगे तो अग्नि की उष्णता को कौन जानेगा ? किन्तु अज्ञानी 'मैं जल रहा हूँ इस कल्पना से ही विह्वल हो उठता है। वस्तुत: ज्ञान को ज्ञेय से कुछ भी तो नहीं मिलता है। वह तो अपने उन ज्ञेयाकारों में भी उतना का उतना ही रहता है। हमारे दर्पण में प्रतिबिम्बित किसी अट्टालिका से हम अपने को लाभान्वित तो नहीं मानते और उस अट्टालिका के दर्पण से ओझल हो जाने पर शोकान्वित भी कहाँ होते हैं। इस परिस्थिति में हर्ष या शोक तो किसी बालक का ही कार्य हो सकता है, किन्तु यह दृष्टि तो हमें निरन्तर ही वर्तती है। हमारे घर में स्वच्छ दर्पण झूल रहा है और हम यह भी जानते हैं कि उस दर्पण में जगत् के अनेक पदार्थ भी प्रतिबिम्बित होते हैं, किन्तु हमारे दर्पण में क्या-क्या प्रतिबिम्बित होता है यह हमारी दृष्टि का विषय नहीं होता, वरन् उन प्रतिबिम्बों के प्रति सदा हमारा उदासीन भाव ही प्रवर्तित होता है, जो भी प्रतिबिम्बित होता हो वह दर्पण का स्वभाव ही है। दर्पण के स्वच्छ स्वभाव का विश्वास हमें यह विकल्प ही नहीं उत्पन्न होने देता कि उसमें क्या-क्या प्रतिबिम्बित होता है ? क्योंकि वह हमारे विकल्प

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